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________________ 310 2. मांसाहार - मांसाहार का व्यसन प्रकृति के विरुद्ध है। कारण, मांसभक्षी पशुओं के शरीर की रचना से मानव शरीर की रचना एकदम भिन्न होती है। आज के शरीर शास्त्रियों का भी मत है कि मांसभक्षण मानव के लिए पूर्णतः अनुपयुक्त है। यह अनुपयुक्तता दोहरी है। मांसाहारी का स्वयं का शरीर व्याधिग्रस्त होता है तो उन प्राणियों का तो हनन ही हो जाता है जिन्हें मांस के लिए मारा जाता है। जीवों की हिंसा से ही मांस उपलब्ध होता है। हिंसा से पाप कर्मों का बंध होता है और यह कर्मबंध भावी जीवन का भी नाश कर देता है। आचार्य हेमचन्द्र का अभिमत है कि पंगु या विकलांग होना, कुष्ठ जैसे घातक रोगों से ग्रस्त बनना अथवा लूला लंगड़ापन आदि पाना हिंसाजन्य कर्मों का ही कुफल होता है । 'मां' तथा 'स' अक्षरों को अलग लिखकर अर्थ निकालें तो वह यही होता है कि जिसको मैं खा रहा हूँ, वह मुझे खाएगा। कुछ लोग यह कुतर्क देते हैं कि मांसाहार से पाप नहीं लगता, क्योंकि हम खुद पशुओं को नहीं मारते हैं, हम तो मांस बाजार से खरीद कर लाते हैं। किन्तु यह मात्र भ्रम है। यदि मांसाहारी नहीं हों तो मूक प्राणियों का वध ही क्यों किया जाएगा? मांसाहारी इस तर्क का उत्तर नहीं दे सकेगा कि यदि तुम किसी को जीवन दे नहीं सकते हो तो तुम्हें किसी का जीवन लेने का क्या अधिकार है? यह तर्क मांसाहारी को अपराधबोध करा सकता है। मांसाहार को मानते तो सभी अपवित्र हैं तभी तो मांस खाने वाले भी अपने धर्मस्थानों में मांस का उपयोग नहीं करते। मांसाहार सर्वथा हानिकारक है। वैज्ञानिक मानते हैं कि मांसाहार में कैल्शियम और कार्बोहाइड्रेट्स के नहीं होने से मांसाहारी चिड़चिड़े, क्रोधी, निराशावादी, अधीर और असहिष्णु हो जाते हैं। उनका स्नायुतंत्र दुर्बल हो जाता है 1 3. मद्यपान - मद्य में वे सभी पेय शामिल हैं जिनमें मादकता होती है, जो विवेक बुद्धि को भ्रमित या नष्ट करते हैं तथा कर्तव्यों पर पर्दा डाल देते हैं- 'बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यतें ।' मदिरा या शराब नशा लाती है, चेतना को बेभान बनाती है। नशा लाने वाले अन्य पदार्थ हैं- भांग, गांजा, चरस, अफीम, चुरूट, सिगरेट, बीड़ी, तम्बाबू, ब्राऊन शुगर, मादक ड्रग्ज, ताडी, व्हिस्की, ब्रांडी, जिन, रम, बियर आदि देशी-विदेशी ब्रांड की मदिराएँ । मद्यपान ऐसा तीर है जो एक बार लग जाता है तो निकाले नहीं निकलता। एक घूंट से शुरू होने वाला शराबी किसी हद पर जाकर रूकेगा- ऐसा कुछ भी नहीं है। बोतलों पर बोतलें पी जाने वाला शराबी भी कभी तृप्त नहीं होता । अतृप्ति का दूसरा नाम ही तो शराब । सही नजरिए से देखें तो कतई पीने लायक नहीं। शर्करायुक्त पदार्थ जैसे अंगूर, महुआ, जौ, गेहूं, मक्का, गुड़ आदि वस्तुओं को बुरी तरह सड़ा कर शराब बनाई है। यह सड़ी हुई शराब क्या पेय भी मानी जा सकती है? शराब तो एक तरह से सड़ा हुआ पानी है, जो किसी भी रूप से टॉनिक या पोषक नहीं है, बल्कि हर तरह से शोषक है। एक वैज्ञानिक का मत है कि मानव के रक्त की हजार बूंदों में यदि शराब की केवल दो बूंदे मिला दी जाए तो उस मानव की बोली बंद हो जाती है। शराबी की बोली और चाल को लड़खड़ाते हुए देखा जाता है। जो मदिरालय जाने लगता है, वह धन और मन दोनों से दिवालिया हो जाता है, सो मदिरालय को दिवालिया बैंक कह सकते हैं। इस दिवालिया बैंक में मनुष्य का धन और समय ही नहीं, चरित्र तो पूरी तरह नष्ट हो जाता है। मदिरा उत्तेजक होती है और मदिरापान करने वाले को पागल बना देती है
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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