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दुर्व्यसनों की बाढ़ बहा देती है चरित्र निर्माण की फलदायी फसल को
चित्ताकर्षक होता है, जो व्यक्ति को दलदल में फंसा देता है। मूलतः सारे व्यसन चरित्रनाशक होते हैं। अमरबेल की तरह लिपटकर जीवन का सर्वनाश कर देते हैं व्यसनः
आपने अमर बेल देखी होगी, जिस की कोई जड़ जमीन पर नहीं होती, लेकिन वह जिस किसी वृक्ष पर पूरी तरह लिपट जाती है, उस वृक्ष का समूल विनाश हो जाता है। तो व्यसनों को अमरबेल के समान मानें, जो मानव जीवन से जब लिपट जाते हैं तो जीवन का एक बार तो सर्वनाश करके ही छोड़ते हैं। यह विषैली बेल के समान होता है, जो मानव जीवन की सात्त्विकता को नष्ट कर देता है, पारिवारिक जीवन को विवादों में उलझा कर छोड़ देता है तो सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा और मान मर्यादा को धूल में मिला देता है।
जैनाचार्यों ने सात प्रकार के दुर्व्यसनों का उल्लेख किया है
'द्यूतं व मांसं च सुरा च वेश्या, पापर्द्धि चौर्यं परदारसेवा । ऐतानि सप्त व्यसनानि लोके, घोरातिधोरं नरकं नयन्ति ।'
ये सात दुर्व्यसन हैं - 1. जुआ, 2. मांसाहार, 3. मद्यपान, 4. वेश्यागमन, 5. शिकार, 6. चोरी तथा 7. परस्त्री (परपुरुष) गमन ।
ये सातों दुर्व्यसन अंधे कुए के समान बताए गए हैं, जिनमें गिरकर मानव केवल पाप प्रवृत्तियों में ही लगा रहता है। शुरू करते समय कोई भी व्यसन छोटा सा दीखता है, लेकिन वह व्यसनखोरी लगातार बढ़ती जाती है और बेहद बन जाती है। इन सप्त दुर्व्यसनों के रूप- अपरूप को संक्षेप में समझें ।
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1. जुआ जुआ का प्राचीन नाम है द्यूत क्रीड़ा, जिसमें उलझकर युधिष्ठिर ने अपना सब कुछ गंवाया ही नहीं, बल्कि अपने भाइयों के लिए वनवास भी कमाया। जुआ खेलने की प्रवृत्ति इस लालच से शुरू होती है कि बिना मेहनत किए भारी मात्रा में धन-सम्पत्ति प्राप्त की जाए। जुआ ऐसा आकर्षण बन जाता है कि छुटाए नहीं छूटता। बार-बार हारता हुआ भी जुआरी दांव पर दांव खेलता जाता है कि अगली बार जरूर खूब धन मिल जाएगा। यह आकर्षण भूत की तरह मानव का सारा सत्त्व चूस लेता है। जिसको यह लत लग जाती है, वह माया की मृग मरीचिका से निकल ही नहीं पाता है। शास्त्रों ने द्यूत क्रीड़ा को त्याज्य कहा है। सूत्रकृतांग में चौपड़ या शतरंज के रूप में भी जुआ खेलने का निषेध किया गया है- 'अट्ठाए न सिक्खेज्जा ।' कारण बताया गया है कि हारा हुआ दुगुना खेलता है। एक अंग्रेज विचारक ने जुआ को लोभ का बच्चा और फिजूलखर्ची की माँबाप बताया है (‘गेम्बलिंग इज दि चाइल्ड ऑव एवरिस, बट दि पेरेन्ट ऑव प्रोडीगेलिटी') । आज के जमाने में जुआ के कई रूप निकल आए हैं-सट्टा, फीचर, लॉटरी, मटका, रेस आदि और मैच फिक्स करके क्रिकेट के माध्यम से भी जुआ खेला जाने लगा है। हकीकत में जुआरी को पैसे का लेने देन चाहिए चाहे मामला कोई भी हो । एक जुआरी जुआ खेलने तक ही नहीं रुकता क्योंकि बिना मेहनत मिलने वाला धन चुप नहीं रहता- जैसे रास्ते से आता है, वैसे ही रास्तों से गटर के पानी की तरह बह जाता है। जुआ हो या कोई दूसरा व्यसन, व्यक्ति के जीवन में घुस कर तभी फैलता है जब व्यक्ति चरित्रहीन हो जाता है।
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