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________________ आचार के उच्चतर बिन्दु, अहिंसक क्रांति और व्यक्तित्व गठन में काट की अनुभूति हो। यह अवस्था शक्ति-सम्पन्नता की पराकाष्ठा होगी।...लेकिन मेरे मन में प्रश्न है कि परिपूर्ण संयुक्तता आदि हो तो व्यक्तित्व का क्या स्वरूप होगा? मुझे यह अनिवार्य जान पड़ता है कि तब हिंसा के भाव या कर्म के लिये वहां अवकाश नहीं रह जाएगा। दुश्मन के रहने की जब तक संभावना है, तब तक मुक्तता में कुछ त्रुटि ही माननी चाहिए। जो प्रेम में समा और रम गया है, उसमें वैरभाव या पर-भाव कहां रह जायेगा?...मुझे प्रतीत होता है कि हिंसक पराक्रम बुनियाद में अपने ही डर में से निकलता है। अपना डर मूल में संयुक्तता नहीं, विभक्तता का परिचायक है अर्थात् सम्पूर्ण संयुक्तता ईश्वरत्व और प्रेम से ही प्राप्त की जा सकती है। वह जो कभी टूटे नहीं, डिगे नहींऐसी दृढ़ता हिंसक में नहीं हो सकती। हिंसक की दृढ़ता कट्टर होती है, लोच उसमें नहीं होता। इससे दृढ़ता भी वह सच्ची नहीं होती। ऐसा बल सदा अपने से अधिक बल से डरता है। इससे यह मान लिया जाए, मैं तो मानता ही हूँ कि मानव व्यक्तित्व की अखंड युक्तता कठोरता में नहीं, कोमलता में ही सम्पन्न हो सकती है। कठोरता में से जिन्होंने एकाग्रता को साधना चाहा, ऐसे उग्र तपस्वी और उद्भट पुरुष अन्त में टूटे ही हैं, क्योंकि गहरे में उनमें कहीं दरार और तरेड़ पड़ी हुई रहती है।...जिनको इतिहास ने और मानवता ने मुक्त माना है, जिन्हें अवतार तक कह कर भी मनुष्य की आतुर श्रद्धा तृप्ति नहीं पाती है, जिन पर कष्ट पर कष्ट आते गए हैं और जिनसे उत्तर में मिठास पर मिठास मिलती गई है, जिन्होंने बलिदान लिया नहीं है, तिलतिल अपना ही बलिदान दिया है, वे पुरुष ही उस सिद्धि के परम दृष्टान्त बने हैं, जिसे पूर्ण योग (कम्पलीट इन्टीग्रेशन ऑफ पर्सनलिटी) कहा जा सकता है (ग्रंथ 'समय और हम,' अध्याय-'वैज्ञानिक अध्यात्म' पृष्ठ 124-127)।" ___ अब मानव-मूल्यों की चर्चा करें। संयुक्त और एकाग्र व्यक्तियों के सृजित होने से मानवता के नये प्रगतिशील मूल्यों का सृजन एक सक्रिय प्रयास बन जाएगा। इस संबंध में समता दर्शन प्रणेता स्व. आचार्य श्री नानेश के विचार चिन्तन में लिए जाने चाहिए। उनकी मान्यता है-"सिद्धान्तपरक एवं गुणमूलक संस्कृति ही अपने यथार्थ अर्थ में मूल्यों की संस्कृति होती है।" वस्तुतः गुणों का नाम ही मूल्य हैं । गुण वे हैं जो गुणी को गुणवान् बनाते हैं या यों कहें कि एक मनुष्य को मनुष्यता के गुणों से विभूषित करते हैं। मनुष्य मात्र होना उतना सार्थक नहीं है, बल्कि यदि उसमें मनुष्यता के गुणों का सम्यक् विकास नहीं हुआ है तो वह निरर्थक भी कहला सकता है। मनुष्य होने के साथ मनुष्यता का होना अत्यन्त आवश्यक है। यदि ऐसा जल हो जिससे प्यास ही नहीं बुझती हो तो फिर उसे जल मानेगा ही कौन? जल का गुण है प्यास बुझाना और यदि गुणी में उसके गुण का ही अभाव है तो गुणी निर्गुणी कहलाएगा। इसी प्रकार मनुष्यता के अस्तित्व से ही मनुष्य का बोध होता है, अतः मनुष्यता उसका मूल गुण है। मनुष्य के लिये यही मूल्यात्मक जीवन है कि वह सर्वप्रथम मनुष्यता (मानवीय मूल्यों एवं गुणों) को धारण करे। यदि मनुष्य में मनुष्यता ही नहीं है तो वह गुणहीन होगा, मूल्यहीन कहलाएगा।...मनुष्यता होती है मानवोचित सिद्धान्तों तथा गुणों का पुंज। यही मनुष्य के मूल्यों का समूह भी होगा। मानवोचित विशेषण का क्या अर्थ लें? मानवोचित का अर्थ होता है जो मानव के लिये उचित हो। मनुष्य के लिये उचित क्या? इस विषय पर वीतराग देवों ने सम्पूर्ण प्रकाश डाला है जिसे हम आत्मसात् करके अपने आपको भी मनुष्यता पहचानने की कसौटी बना सकते हैं। इस पहचान में मेरी मान्यता है कि मेरी आस्था भी उपयोगी होगी तो मेरा तर्क भी काम करेगा। व्यावहारिक 297
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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