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सुचरित्रम्
विधि (टेस्ट्स) और (स) प्रश्नावलियों (क्वश्चनैयर्स) द्वारा किया जा सकता है। व्यक्तित्वों के दो प्रमुख विभाग किए गए हैं-(1) अन्तर्मुखी (इन्ट्रोवर्ट्स) और (2) बहिर्मुखी (एक्स्ट्रोवर्ट्स)। यह विभाजन मनोविज्ञान के आधार पर है। यह माना गया है कि सभी मानव व्यक्तित्वों का इन दो प्रकारों में समावेश हो जाता है। मनोविज्ञानवेत्ता जंग के अनुसार अन्तर्मुखी व्यक्ति वे होते हैं जिनकी रुचियां आन्तरिकता की ओर मड जाती हैं और विचारशैली भी आन्तरिक बन जाती है। जबकि बहिर्मखी व्यक्ति वे होते हैं जिनकी रुचियां बाहरी वातावरण की ओर मुड़ जाती हैं। दोनों प्रकारों के बीच का एक ओर मिश्रित प्रकार है जो बहुमुखी (एम्बीवर्ट्स) कह जाते हैं। माना जाता है कि दुनिया के करीब आधे व्यक्ति इस प्रकार के होते हैं (जनरल साइकोलोजी (अंग्रेजी) द्वारा प्रो. जे. पी. गुइलफोर्ड, अध्याय 22 ह्यमन पर्सनालिटी के आधार पर)।
उक्त ग्रंथ 'ह्यूमन साइकोलोजी' का यह विवरण भी दिलचस्प है। मनोविज्ञान के अनुसार अन्तर्मुखी एवं बहिर्मुखी के लक्षण और उनका अन्तर इस प्रकार है-बहिर्मुखी-1. अपने वातावरण के प्रति सतर्क, 2. अच्छा मेल मिलापी, 3. स्वभाव में उतार चढ़ाव, 4. तत्काल प्रतिक्रिया का प्रकटीकरण, 5. कार्य में तत्परता, 6. सक्रियता में रुचि, 7. परिवर्तन पसन्द, 8. तत्काल ग्रहणशीलता आदि। अन्तर्मुखी-1. सुप्त मानस व दिवास्वप्नदर्शी, 2. सामाजिक सम्पर्क को टालने वाला, 3. प्रत्यक्षतः एक सा स्वभाव, 4. भावों को व्यक्त नहीं करता, 5. करने से पहले खूब सोचता है, 6. प्रतिच्छाया पसन्द, 7. परिवर्तन नापसन्द, 8. कठिनाई से ग्रहण करता है आदि। ... यह तो है मनोविज्ञानवेत्ताओं का व्यक्तित्व गठन के संबंध में विश्लेषण। निस्संदेह अन्तर्मुखिता एवं बहिर्मुखिता व्यक्तित्व की आधारगत. लाक्षणिकता होती है। अब इसके संबंध में एक मर्मज्ञ विचारक जैनेन्द्र कुमार जैन के निष्कर्ष को जानिए । वे बताते हैं कि "प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व . . में एकत्रितता और एकाग्रता लाना चाहता है। दृढ़ व्यक्तित्व हमें दिखाई देते हैं, वे वही हैं, जिन्होंने किसी न किसी प्रकार यह योग और ऐक्य अमुक मात्रा में साधा है। अमुक विचार, मत, आदर्श या । आसक्ति के पीछे जिन्होंने अपने को होम दिया है, उसी लगन में बांध दिया है-ऐसे लोग बहुत कुछ कर जाते हैं। दृढ़ता व क्षमता अन्तःप्रवृत्तियों के इसी एकीकरण का नाम है।...दो शब्द चला करते हैंअन्तर्मुखी और बहिर्मुखी। ये दोनों वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ अन्त में एकता साधने के लिये ही हैं। जो अन्दर एक बनता है, बाहर के साथ ही उसका सामंजस्य बढ़ता है या बाहर के प्रति अपना संबंध सही बनाता है, वह अपने अन्दर में शान्त और तृप्त बनता है। अर्थात् एकता किसी घिरे वृत्त में, बन्दपन में सिद्ध नहीं हो सकती है और न वह व्यवहार से निरपेक्ष है। व्यवहार परस्पर के संबंधों के आधार पर बनता है और व्यक्तित्व की आन्तरिक एकता इन संबंध सूत्रों के द्वारा बाहर प्रभाव और सद्भाव उत्पन्न किए बिना नहीं रह सकती। व्यक्ति जो विराट बनता है. वह इसी प्रक्रिया से। कोई अपने से बडा हो. इसका अर्थ ही कछ नहीं। ऐसा बडप्पन एकता का नहीं. अहं का द्योतक है। अहं के रोग में गहरे फंसे हुए प्राणी ही विक्षिप्त माने जाते हैं। आप किसी पागल खाने में जाकर देखिए, सब अपने को परमात्मा मानते हैं, नहीं तो बादशाह, नवाब, रईस आदि। यह शक्ति-क्षय की सीमा है। इसके विरोध में एक वह निःस्वभाव सिद्ध किया जा सकता है, जिसमें न स्व के भीतर काट हो, न स्व पर
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