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सुचरित्रम्
समय में ही वह उत्कृष्टता के अंतिम बिन्दु तक भी पहुंच जाती है। भावमयता की यही विशेषता ह कि वह चरित्र विकास को कुछ ही क्षणों में परिपूर्ण बना देती है। भाव ही नींव और भाव ही शिखर बन जाता है, उस अनुपम चरित्र विकास का। यही उत्कृष्टता कपिल ब्राह्मण को भी प्राप्त हो गई। उसका चरित्र विकास परिपूर्ण बन गया और उसे सर्वोच्च ज्ञान केवल्य ज्ञान की उपलब्धि हो गई। कपिल केवली वहीं ध्यानस्थ हो गये। धर्म, संस्कार, वातावरण से उपजी भावमयता नींव की पहली ईंट :
बुद्धि और भाव में भेद करना होगा। बुद्धि तो मानव मात्र में होती है, परन्तु भाव की सृष्टि धर्म की उत्कृष्टता, पूर्व संस्कारों की श्रेष्ठता तथा शुभतामय वातावरण पर निर्भर करती है। धर्म, संस्कार तथा वातावरण के प्रभाव से बुद्धि अन्तःकरण से जुड़ती है तब बुद्धि में विवेक पैदा होता है जो आन्तरिक जागृति का लक्षण बनता है। विवेकहीन बुद्धि विकल्पात्मक रहती है-एक निर्णय पर पहुंच नहीं पाती, किन्तु विवेकयुक्त बुद्धि निर्णयात्मक हो जाती है। निर्णय ले सकने की शक्ति के साथ ही उसके दो सुपरिणाम सामने आते हैं। एक तो यह कि प्रगति की दिशा स्पष्ट हो जाती है और ध्येय की स्पष्टता के कारण सच्चा पुरुषार्थ नियोजित करने की क्षमता सभद्र हो जाती है। दूसरे, सत्या सत्य के निर्णय से हार्दिक विकास गति पकड़ता है और भावमयता की अनुभूति को यदि चरित्र विकास की नींव की पहली ईंट कहें तो समीचीन होगा। भावानुभूति ही भाव प्रवणता एवं भाव उत्कृष्टता का विकास करती है। इस विकास को ही सच्चा चारित्रिक विकास कहना होगा जो उत्कृष्टतर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ उत्कृष्टतम के अपने अंतिम ध्येय को प्राप्त करता है। यह सही है कि अन्तःकरण की जागृति में ज्ञान की पूर्व भूमिका निःसन्देह अनिवार्य है, किन्तु चरित्र का विकास तो स्वयं साधक की योग्यता एवं क्षमता पर ही निर्भर करता है कि वह उस ज्ञान को आचरणगम्य कितनी उत्कृष्टता से बना पाता है। इसी प्रकार भावमयता की अवस्था के लिए धर्म, संस्कार तथा वातावरण की पूर्व भूमिका आवश्यक है, किन्तु अन्त:करण की जागृति के स्तरानुसार ही चरित्र का ' विकास संभव बनता है।
अन्तःकरण की जागृति ही भावमयता को जन्म देती है और विवेक बुद्धि उसे दुलारती है। भावमयता ज्यों-ज्यों अधिकाधिक शुभ, शुद्ध और गहरी होती जाती है, त्यों-त्यों आचरण सुदृढ़ बनता जाता है तथा चरित्र विकास की गति तीव्रता पकड़ती जाती है। कभी-कभी तो यह विकास इतना तीव्रमय हो जाता है कि कपिल केवली के समान कुछ ही क्षणों में अपने चरम बिन्दु तक पहुंच जाता है। यह भावमयता की अतिविशिष्टता की अवस्था होती है, किन्तु सामान्यतया यदि संकल्पबद्धता बनी रहे तो भावमयता के विकास में निरन्तर सक्रियता जारी रहती है। भाव के पतन में जैसे बन्धनों की जकड़ बढ़ती है, वैसे ही भावों के उत्थान में मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। मन और इन्द्रियाँ तब भी अपनी ग्रहणशीलता को नहीं बदलती, किन्तु भावमयता के कारण आत्मा की संलग्नता वहां नहीं रहती। वास्तव में बंधन न तो शरीर और न ही मन व इन्द्रियाँ बांधती है, बल्कि भावमयता के अभाव में आत्मा ही बंधन बांधती है और उसके सद्भाव में वही बंधनों को तोड़ भी देती है। आंख जब है तो वे रूप को ग्रहण करेगी-अच्छा या बुरा दृश्य उनके सामने आएगा किन्तु आत्मा जब भावमय
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