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लक्ष्य निर्धारण शुभ हो तो संकल्प सिद्धि भी शुभ
राज्य सभा में प्रातः कपिल को राजा के समक्ष प्रस्तुत किया गया और अपराध का विवरण सुनाया गया। राजा ने कपिल के स्पष्टीकरण को ध्यानपूर्वक सुना और उसे कपिल की निर्दोषता पर विश्वास हो गया। साथ ही राजा को यह दुःखानुभव भी हुआ कि उसके नगर में दीनता की ऐसी दयनीय स्थिति भी है। राजा ने कपिल को अपना निर्णय सुनाया-'ब्राह्मण, तुम निर्दोष हो, इसलिए मुक्त किये जाते हो।' कपिल ने राजा का जयकार किया और वह जाने के लिए मुड़ा तभी राजा ने उसे रोका और कहा-'ब्राह्मण, तुम्हारी दीनता से मुझे बहुत दुःख पहुंचा है। एक स्वर्ण मुद्रा के स्थान पर तुम मुझसे मनचाही मांग कर सकते हो। बोलो-तुम्हें क्या चाहिए?' कपिल भौंचक्का रह गया। उस समय वह दंडित नहीं हुआ-यही उसके लिए संतोष का विषय था। किन्तु राजा तो उसकी मनचाही मांग पूरी करने के लिए तैयार है तो वह क्या मांग ले? वह कुछ भी तत्काल सोच नहीं पाया। तब उसने राजा से निवेदन किया-'राजन्, मुझे मनचाही मांग पर सोचने के लिए कुछ समय दिया जाय।' राजा ने तुरन्त उसकी बात मान ली और उसे सोचने के लिए महल के पास वाले उद्यान में भेज दिया।
उद्यान की एक शिला पर बैठ कर कपिल ब्राह्मण ने सोचना शुरू किया-राजा कितने दयालु हैं? दंड न देकर वरदान ही दे डाला। अब एक स्वर्ण मुद्रा तो मामूली मांग रह गई है। कुछ इतना तो मांग ही लूं कि कुछ समय के लिए दीनहीन अवस्था से छुटकारा मिल जाए... तो क्या मांगू? दस स्वर्ण मुद्राएं ठीक रहेगी? पागल हो रहा है क्या? जब राजा कुछ भी देने को तैयार है तो दिल खोल कर ही मांगू। बस, बहुत हो जायगा-सौ स्वर्ण मुद्राएं मांग लूं-एक बार तो गरीबी का गला ही दब जायगा। प्राप्त धन से कुछ धंधा कर लूंगा और इस तरह जीवनयापन सरल हो जाएगा....
अंतिम निर्णय के विचार से वह उठने लगा तभी उसके मन ने जोरदार फटकार लगी कि वह पुनः धम् से बैठ गया। पागल मन, उसे भटकाने लगा-मूर्ख, जब राजा दे ही रहा है तो तू मांगने में ढीला क्यों हो रहा है? दम साध और भरपूर मांगने का फैसला कर ले। फिर प्रश्न-तब क्या मांगू? हजारों स्वर्ण मुद्राएं, भव्य भवन, सुख सुविधाएं, सज्जा सामग्री... और क्या-क्या? न मांगने की सूची का अंत आ रहा था और न अंतिम निर्णय का क्षण... लोभ की मांगे बढ़ती ही जा रही थी। आखिर अन्त पर ही लोभ का अन्त हो गया-कपिल ने निर्णय ले लिया कि वह राजा से उसका पूरा राज्य ही मांग ले और वह अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ।
परन्तु कपिल का पांव जैसे धरती पर जम गया-उसका कदम आगे नहीं बढ़ा। उसे लगा जैसे उसके मस्तिष्क को कोई जोर का झटका महसूस हुआ हो और वह भ्रमित सा हो गया। धीरे-धीरे जब उसकी चेतना लौटी तो उसके सोच ने एकदम विपरीत दिशा पकड़ ली... मैं कितना अधम निकला कि राजा ने दया दिखाई तो मैंने उसे ही दीनहीन बना डालने का निश्चय कर लिया... मेरी नीचता ने तो किसी सीमा तक का ख्याल नहीं किया। मुझे कुछ भी नहीं मांगना है बल्कि अपने दुष्ट विचारों का प्रायश्चित्त करना होगा-जो मेरी दीनता मिटाने लगा उसे ही अपने जैसा दीन बनाने का कुविचार आखिर मेरे मन में उपजा ही क्यों? बार-बार कपिल स्वयं को धिक्कारने लगा।
भावमयता जब जन्म लेती है और वह उत्कृष्टतर श्रेणियों में उन्नत बनती जाती है तब अल्पतम
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