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________________ सुचरित्रम् ये काव्यांश संवेदनशील कवि डॉ. धर्मवीर भारती के काव्य ग्रंथों-अंधा युग (1-4) सात गीत वर्ष (18) ठंडा लोहा (15-17) तथा कनुप्रिया (18) से लिये गये हैं। जो ध्यान से इन्हें पढ़ा जाएगा तो अनुभूति होगी कि चरित्र के खोखलेपन पर कवि हृदय में कितनी अथाह पीड़ा है, मन के लिये कैसा अद्भुत जागरण है एवं अवतारों के प्रति भी कितना कटाक्ष है? चरित्र विकास में संस्कृति प्राण तत्त्व है तो सभ्यता उसका भौतिक तत्त्व : चरित्र निर्माण एवं विकास के प्रवाह को सतत प्रवहमान बनाये रखने के लिये अनेक तत्त्वों एवं सद्गुणों की आवश्यकता होती है, जिनमें से कुछ यों गिनाये जा सकते हैं-संवेदनशील एवं महत्त्वाकांक्षी हार्दिकता, त्याग एवं समर्पण की भावना, अथक कार्यशीलता, मानव जाति की एकरूपता में विश्वास, वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव, पर पीड़ा विह्वलता, संकल्पबद्धता, कर्मठता आदि। ऐसी वृत्तियाँ सक्रिय रहे और आचरण तथा व्यवहार में कार्यान्वित होती रहें तो उससे व्यक्ति एवं समूह की आदर्श स्थिति सृजित होती है। ऐसा सृजन चरित्र प्रवाह को अक्षुण्ण बनाये रख सकता है। दूसरे, चरित्र निर्माण तथा विकास की प्रक्रिया को सतत कहा जाता है, क्योंकि इसका कार्य, प्रभाव और परिणाम भी सतत चलता है। चरित्र निर्माण का प्रवाह प्रतिबिम्बित होता है समाज या समूहों के स्वस्थ संचालन में और यह स्वस्थ संचालन निर्मित करता है उन्नतिशील संस्कृति एवं सभ्यता तथा रचता है प्रेरक साहित्य एवं कला की कृतियाँ। इसीलिये कहा जाता है कि यदि चरित्र प्रवाह का सम्यक् आकलन करना है तो संस्कृति, सभ्यता, साहित्य एवं कला को दर्पण में बारीकी से झांको और मीमांसा करो उसकी शुभता का, उसकी अशुभता का अथवा उसकी उन्नति का, उसकी अवनति का एवं योजना बनाओ चरित्र के बल पर सर्वत्र शुभता के प्रसगण की उन्नति को ऊंचाईयों तक ले जाने की एवं चरित्र विकास को एकाकी मार्ग दर्शक बनाने की। चरित्र सम्पन्नता होगी तो वह उस समाज, राष्ट्र या विश्व के भू-भाग की संस्कृति और सभ्यता में अवश्य झलकेगी, साहित्य में प्रेरणा की स्रोत बनेगी तो कला की अनुपम कृतियों में विभूषित होगी। __संस्कृति की एक निश्चित व्याख्या नहीं की जा सकती है, क्योंकि अनेक तत्त्वों की सद्भावना में इसकी सृष्टि होती है। फिर यह शब्द संस्कार से बना है यानी संस्कारों की कृति । दार्शनिक श्री प्रकाश की व्याख्या अर्थपूर्ण है-सभ्यता शरीर है और संस्कृति आत्मा। सभ्यता जानकारी और विभिन्न क्षेत्रों की महान् एवं विराट खोज का परिणाम है तो संस्कृति विशुद्ध ज्ञान का परिणाम है। पाश्चात्य विचारक वोबी के कथनानुसार संस्कृति दो प्रकार की होती है-1. परिमित संस्कृति जो श्रृंगार एवं विलासिता की ओर भावित होती है और 2. अपरिमित संस्कृति जो सरलता एवं संयम की ओर प्रवाहित होती है। एक अन्य पाश्चात्य विचारक मैथ्यू आर्नल्ड ने कहा है कि विश्व के सर्वोच्च कथनों और विचारों का ज्ञान ही सच्ची संस्कृति है। भारतीय चिन्तक साने गुरु जी का मत है कि जो संस्कृति महान् होती है, वह दूसरों की संस्कृति को भय नहीं देती, बल्कि उसे साथ लेकर पवित्रता देती है। गंगा की गरिमा इसी में है कि वह दूसरे सभी प्रवाहों को अपने में मिला लेती है और इसी कारण वह पवित्र, स्वच्छ तथा आदरणीय कही जा सकती है। लोक में वही संस्कृति आदर के योग्य बनती है जो विभिन्न धाराओं को साथ में लेती हुई अग्रसर होती रहती है। 250
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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