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मानव चरित्र का संचरण इतिहास के परिप्रेक्ष्य में
चरित्रशीलता एवं विवेक के साथ, उतनी ही सफलता समीप। पुरुष की परम शक्ति पुरुषार्थ ही तो होती है-पुरुष हो, पुरुषार्थ करो, उठो। प्रमाद में पुरुष शिथिल और निष्क्रिय होता है, किन्तु यह पुरुषार्थ उसे सजगता भी देता है तो रचनात्मक क्रियाशीलता भी। इस पुरुषार्थ को सदैव सत्पुरुषार्थ होना चाहिए ताकि चरित्र निर्माण का अभियान परिणामदायक बन सके और तदनन्तर चरित्र विकास का क्रम निरन्तर प्रगतिशील बना रहे।
पुरुषार्थ चार प्रकार के कहे गये हैं-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। इसकी विशद व्याख्याएं स्थानस्थान पर अंकित है और मत-विमत भी। यहां इनको सरलता से समझने के लिये दार्शनिक साहित्यकार जैनेन्द्र जैन की एक संक्षिप्त टिप्पणी उपयोगी रहेगी-चार पुरुषार्थों में मोक्ष की चर्चा नहीं की जा सकती। सफर जिसका काम है, वह मुसाफिर मंजिल को जानने नहीं बैठेगा। मुझे तो यह भी लगता है कि जो मंजिल को जान गया. वह कभी मंजिल तक पहंचा नहीं। दिमाग से वहां पहुंच जाना. पांव-पांव चल कर कडी मेहनत के काम से अपने को बचाना ही है। कवि और दार्शनिक ऐसे ही लोग हुआ करते हैं। वे आदर्श और स्वप्न को गाते जाते हैं-उसे पाने, पहुंचने की झंझट में नहीं पड़ते। इसलिये मंजिल और मोक्ष की बात से आप खुद भी बचिये, मुझे भी बचाइये।...चार पुरुषार्थ यानी चतुर्भुज को देखना ही हो तो मैं उसे उल्टा खड़ा देखता हूँ-मोक्ष, काम, अर्थ और धर्म। धर्म मूलभाव और मल दष्टि है. वही अर्थ और काम इन दो तटों की ओर जीवन को विस्तार दे और वही दृष्टि फिर दोनों को परस्परापेक्षा में व्यवस्था देती हई मक्ति में समाहित कर दे तो मानो चतर्भज का दष्ट परिपूर्ण हो जाता है।...धर्म एक अखंड श्रद्धा है, श्रद्धा को व्यवहार पर लाते हैं तो विवेक का रूप बनता है और उसके समक्ष अर्थ और काम से रूपाकार पाया हुआ द्वैत का संसार आता है। इस समय विस्तृत द्वैत में से फिर एक एकत्व अर्थात् मुक्ति की ओर उन्नति होती है।...दूसरे शब्दों में मोक्ष में अर्थ और काम का परिहार नहीं है, बल्कि समाहार है। अर्थ-काम की कोई अतिरिक्त अतृप्ति और त्रुटि मोक्ष प्राप्ति में अन्तराय और बाधा ही बनने वाली है, यानी मोक्ष में अतृप्ति किसी प्रकार की नहीं रह सकती है।...पर इन चार पुरुषार्थों के चतुर्भुज रूप की कल्पना इसलिये नहीं है कि आप और मैं उस पर अटकें या दर्शन को उसी चित्र में साधे। वह तो सिर्फ बुद्धि के सहारे के लिए है-उससे अधिक महत्त्व देना भूल करना होगा ('समय और हम' ग्रंथ से-पृष्ठ 209-210)।
मानव चरित्र के निर्माण एवं विकास की यह उच्च कोटि होगी कि हम शुभता के सर्वत्र विस्तार के अभियान के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने हेतु प्रशिक्षित एवं संकल्पित बन जाए। मर्मज्ञ कवियित्री अमृता प्रीतम कहती हैं-'जो कुछ आप सैंकड़ों हाथों से अर्जित करते हैं, वह हजारों हाथों से बांट दें' (सूर्यवंशी-चन्द्रवंशी-उपन्यास से) आइये, ऐसा चरित्र निर्माण अभियान चलावें जो आज के मानव और युग को गुणवत्ता पर स्थिर बनावें।
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