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________________ मानव चरित्र का संचरण इतिहास के परिप्रेक्ष्य में समस्याओं एवं विवादों के उपरान्त भी आर्य एवं आर्येतर संस्कृतियों में समन्वय के तत्त्व अधिक विकसित हुए। फलस्वरूप साहित्य रचा जाने लगा। ऋग्वेद (6500 ई. पू.) तथा कल्पसूत्रों (4700 ई. पू.) की रचना के बाद अनेक मतों का धार्मिक लेखन (3000 ई. पू.) चला। व्याकरण रचयिता पाणिनी का समय 700 ई. पू. का है जिसमें श्रमण एवं ब्राह्मण संस्कृतियों का उल्लेख है। श्रमण संस्था यहां आर्यों के आगमन से पूर्व विद्यमान थी । तब दो सांस्कृतिक धाराएं प्रमुख थी - एक वैदिक तथा दूसरी प्राग्वैदिक अर्थात श्रमण संस्कृति । यज्ञ-याग में हिंसा की प्रवृत्ति चली तो जैन व बौद्ध धर्मों ने धार्मिक हिंसा को भी हिंसा मानने का आग्रह करते हुए अहिंसक शैली पर बल दिया । वैदिक संस्कृति में मोक्ष शब्द नहीं है - इसका व्यवहार जैनों से शुरू हुआ। सामाजिक संस्कृति में वर्ण व्यवस्था व जाति भेदों की उत्पत्ति ने नारी के स्थान और समन्वय आदि पर प्रश्न चिह्न लगाए, फिर भी तब तक ढले संस्कृति एवं चरित्र निर्माण के स्वरूप की विशेषताएं रही- 1. राष्ट्रीयता से भी ऊपर विश्वजनीनता, 2. विभिन्न जातियों की एक महाजाति और राष्ट्रीयता तथा 3. अनेक वादों, विचारों, धर्मों आदि के बीच एकता लाने का निराला ढंग । संस्कृति एवं चरित्रशैली की एकरूपता के प्रयासों के साथ आन्तरिक विद्रोह भी पैदा होते रहे जिनके प्रभाव से इनका स्वरूप निखरता गया और उनमें नई प्रगतिशीलता का समावेश होता रहा। जैनों के 23वें एवं 24वें तीर्थकर पार्श्वनाथ एवं महावीर के विद्रोही धर्म प्रचार ने हिन्दुओं में नये सुधारों को प्रोत्साहित किया। यह सुधार शान्तिपूर्वक आया किन्तु बुद्ध के धर्म प्रचार से काफी उथल-पुथल मची। ऋग्वेद के सिवाय अन्य तीन वेदों-यजुर्वेद, सामवेद व अर्थववेद तथा वेदांगों-उपनिषदों में स्वर्ग की ही कल्पना की गई थी। हां, उपनिषदों में मोक्ष की धुंधली छाया दिखाई दी, किन्तु जैन एवं बौद्ध दर्शनों के प्रभाव से मोक्ष की धारणा प्रचंड हो गई । तब यज्ञों से आगे सूक्ष्म धर्म की खोज शुरू हुई और दर्शन का विकास हुआ। यज्ञ का स्थान ज्ञान ने लिया: और प्रजापति का स्थान ब्रह्म ने । बौद्धिक प्रयोग के बढ़ने के साथ सृष्टि, जीव, जन्म आदि प्रश्नों पर विचार होने लगा और नये-नये वाद भी पैदा हुए। वैदिक धर्म के प्रति जैन धर्म के विद्रोह की अप्रकट प्रक्रिया यह चली कि सृष्टि कर्त्ता के रूप में किसी परम शक्ति की कल्पना मंद हुई और कर्मवाद की धारणा प्रबल बनी। ब्राह्मण श्रेष्ठता के विपरीत मानव मात्र की और आत्माओं की समानता स्थापित हुई । अहिंसा की परम्परा को व्यापक समर्थन मिला। बौद्ध धर्म भी यज्ञ, पुरोहितवाद और आडम्बरों के विरुद्ध रहा तथा उसमें तप एवं यति वृत्ति की कठोरता को भी नकार दिया। सारा ध्यान दुःख निरोध पर केन्द्रित रहा। इस प्रकार 600 ई. पू. तक धर्म दर्शन के पूरे स्वरूप में नये परिवर्तनों ने प्रवेश किया जिसके फलस्वरूप चरित्र निर्माण एवं संस्कृति के विकास में नये मोड़ आए। जो संस्कृति देवाधीन मान ली गई थी तथा मानव के स्वतंत्र चरित्र विकास की उपेक्षा हो रही थी उसमें क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। कहा गया कि धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है तथा वह धर्म है अहिंसा, संयम एवं तप रूप। ऐसे धर्म में जिस मनुष्य का मन सदा लगा रहता है उसे देवता भी वन्दन करते हैं (धम्मो मंगलमुक्किट्ठे, अहिंसा संजमो तवो, देवा वि तं णमंसंति, जस्स धम्मे सया मणा-दशवैकालिक 1-1 ) । छठी शताब्दी ईस्वी के अन्त तक भारत में चिन्तन, खोज, अनुसंधान एवं बौद्धिक उन्नति की प्रक्रिया कार्यरत हो चुकी थी। 19वीं शताब्दी तक शंकराचार्य के अद्वैतवाद की गूंज रही, आयुर्वेद के क्षेत्र में अनुसंधान हुए तथा सन्त साहित्य का लेखन हुआ, किन्तु इस अवधि में बाहर के संसार का 241
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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