________________
सुचरित्रम्
ऐसे हैं जो पूरी तरह सड़ान से ग्रस्त हैं यानी कि पूरे के पूरे विकृत हो चुके हैं। ऐसे अधिकांश संगठनों में सुधार के कदम तुरन्त ही उठाए जा सकते हैं-उनमें ज्यादा जांच परख की जरूरत नहीं। वर्तमान परिस्थितियों में कशल प्रबंधन के अधिकांश स्थानों पर अभाव को भलीभांति पहचाना एवं जाना जा सकता है। वास्तविक समस्या तो यह है कि उपयुक्त कार्यकर्ता सामने आवे तथा नई संशोधित व्यवस्था की रूपरेखा तैयार की जाए।
संसार, राष्ट्र, समाज या किसी भी संस्था में जब गुणों का सम्मान नहीं रहता और अपने छलबल से जब भौतिक प्राप्तियों को ही ध्येय बना लिया जाता है तब जन-जन के आत्मसम्मान को रौंदती हुई दमन एवं शोषण की बुराई भड़क उठती है और अव्यवस्था का दौर शुरू हो जाता है। अव्यवस्था का दुष्परिणाम ही कुशल प्रबंधन के टूट जाने के रूप में समक्ष आता है। ऐसे में सामाजिक दृष्टि से पिछड़ जाने पर सामान्य जन आर्थिक, राजनीतिक या प्रशासनिक क्षेत्र में अपने प्रभाव से हाथ धो बैठते हैं और सारे अधिकारों पर अन्यायी वर्ग कब्जा कर लेता है। फिर अन्यान्य क्षेत्रों में भी सामान्य जन का वर्चस्व समाप्त होता जाता है और छोटा सा अन्यायी वर्ग सारी सम्पदा का सत्ता का अपने स्वार्थ में शोषण करने लगता है। यों कुशल प्रबंधन का तो ढांचा ही टूटने लगता है।
यह स्पष्ट है कि यह सारा बिगाड़ चरित्रहीनता के कारण पैदा होता और फैलता है। इस से यह भी स्पष्ट होता है कि चरित्रशीलता से ही सारी अव्यवस्था दूर की जा सकती है और नई व्यवस्था का सूत्रपात किया जा सकता है। अत: चरित्र गठन का ही वह मूल क्षेत्र है जिसे सुधारा जाए तो बाकी सब कुछ आसानी से सुधारा जा सकता है-एकै सुधरे, सब सुधरे। चरित्र गठन का क्षेत्र है स्वयं व्यक्ति का जीवन क्षेत्र। सार की बात यह है कि व्यक्ति का जीवन निर्माण सर्वोपरि है-उसके आचरण में शद्धता सच्चाई और दृढता आवे, विचार व विवेक सदा जागत रहे. संयम तथा त्याग की भावना से स्वार्थ व अहंकार शमित हो, परहित में क्रियाशीलता बढे, सबके हित में हर वक्त कुछ न कुछ 'सेक्रीफाईस' करने की लगन हो और संसार व समाज के प्रभावशाली संगठनों को कुशल प्रबंधन के निर्धारित लक्ष्य की दिशा में अग्रगामी बनाने का सामर्थ्य सक्रिय बना रहे- ये कुछ मोटी-मोटी बातें हैं। हम इसका छोटा-सा नाम दे दें कि नैतिकता और संयम का क्षेत्र अर्थात् चरित्रगठन का क्षेत्र । नैतिकता का व्यक्ति के जीवन में प्रवेश उस के अपने आचरण से भी पहले उसके संस्कारों में होना चाहिए। ये संस्कार बनने और ढलने चाहिए माता-पिता के लालन-पालन में, शिक्षकों के शिक्षण-प्रशिक्षण में तथा प्रचलित प्राचीन श्रेष्ठ परम्पराओं के पालन में। व्यक्ति के संस्कारों में जब नैतिकता पुष्ट होती है तो वह चरित्र गठन, आचरण एवं सामाजिक व्यवहार में अवश्यमेव परिलक्षित होगी। यह नैतिकता वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन की आधारशिला होती है। इसे बल मिलता है आन्तरिक जागरण एवं प्रेरणा से, जो निखरती है चरित्र गठन से, विचार क्रांति से, मानवीय संवेदनाओं की अनुभूति से तथा त्याग व बलिदान की भावना से। यह विकसित होती है मानवीय मूल्यों के आग्रह से, आदर्शों के प्रति संकल्पबद्ध होने से, कर्त्तव्य पालन के ऊँचे गगनदंडों से तथा अव्यवस्था को दूर करके नई सर्वहितैषी व्यवस्था स्थापित करने से।
अत: किसी भी नई व्यवस्था की सचोट रूपरेखा बनाते और उसे अमल में लाते समय इस तथ्य
172