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संसारव समाज के कुशल प्रबंधन का एक ही आधार चरित्र
त्यागकर समता भाव को धारण करना तथा स्वाध्याय, ध्यान में प्रवृत्ति करना। इसके पांच अतिचार हैं- 1. शय्या-संस्तारक का निरीक्षण न करना या असावधानी से करना 2. इन्हें अनुपयोग पूर्वक पूंजना 3. मल-मूत्र आदि करने के स्थान को न देखना या असावधानी से देखना 4. उच्चार प्रस्रवण भूमि को न पूंजना या असावधानी से पूंजना तथा 5. आगमोक्त विधि से पौषधोपवास का पालन न करना, अग्राह्यक की इच्छा रखना।
(12) अतिथि संविभाग व्रत-सदैव पंच महाव्रतधारी साधु-साध्वियों एवं स्वधर्म बंधुओं को यथाशक्ति आहार आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है। इसमें स्वयं को या शिष्य को ज्ञान दान देना तथा सिद्धान्तों के उपदेश सुनना-सुनाना भी शामिल है। इसके पांच अतिचार हैं- 1. साधु आदि को नहीं देने की कपट बुद्धि से सचित्त पर अचित्त पदार्थ को रखना 2. इसी कपट बुद्धि से अचित्त को सचित्त पदार्थ से ढकना 3. उचित भिक्षा काल का अतिक्रमण करना 4. आहार आदि अपना होने पर भी न देने की बुद्धि से उसे दूसरे का बताना तथा 5. ईर्ष्या भाव से दान देने में प्रवृत्ति करना, मांगने पर कुपित होना और नहीं देना।
चरित्र गठन के भली प्रकार संगठित करने वाले इन इक्कीस गुणों की भी एक व्रतधारक को प्राप्ति करनी चाहिए-(1) अक्षुद्र-गंभीर स्वभाव (2) स्वरूपवान-सांगोपांग (3) सौम्य प्रकृतिस्वभाव से विश्वसनीय (4) लोकप्रिय-गुण सम्पन्न (5) अक्रूर-कलेश रहित (6) भीरू-पाप संकोच (7) अशठ-निष्कपट (8) सदाशिष्य-परोपकार हेतु उत्सुक (9) लज्जालु-पाप संकोच (10) दयालु-पर दुःख द्रवित (11) मध्यस्थ-तटस्थ विचारक (12) सौम्य दृष्टि-स्नेहालु (13) गुणानुरागी-सद्गुण समर्थन (14) सत्कथक, सुपसियुक्त, उपदेशक व न्यायी (15) सुदीर्घदर्शीदूरदेशी (16) विशेषज्ञ-हिताहित ज्ञाता (17) वृद्धानुगत-अनुभवियों का अनुगामी (18) विनीत-नम्र (19) कृतज्ञ-उपकार मानने वाला (20) परहितार्थकारी-सदा दूसरों का हित साधने वाला तथा (21) लब्ध लक्ष्य-विधाभ्यासी।
व्रतों की उपरोक्त रीति से आंशिक पालना चरित्र गठन के एक चरण को सम्पन्न कर लेती है, जिसके आधार पर संसार और समाज के विभिन्न संगठनों, आयोजनों तथा कार्यक्रमों में कुशल प्रबंधन की स्थाई स्थापना संभव हो सकती है। कुशल प्रबंधन के क्षेत्रों की पहचान करो तथा नई व्यवस्था की रूपरेखा बनाओ!
समझें कि किसी के पेट में दर्द होने लगा, किन्तु रोग क्या है-उसका पता तो मेडिकल टेस्ट्स से ही लग सकता है कि गुर्दे खराब हैं, गाल ब्लेडर में पथरी है या एपेंडीसाइटिस की तकलीफ है अथवा कुछ और। एसे में पक्की जांच के बाद ही चिकित्सा संभव होती है। लेकिन अगर पूरे शरीर पर विष का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता हो तो पहचान की ज्यादा जरूरत नहीं रहती, बल्कि विष की तीव्रता एवं शरीर के विभिन्न अंगोपांगों पर पड़ रहे असर के अनुसार शीघ्रातीशीघ्र चिकित्सा का क्रम आरंभ कर दिया जाता है। इसी प्रकार आज के विभिन्न प्रशासनों, संगठनों या कार्यक्रमों में फैली विकृतियों की पहचान करने जाएंगे तो विरले ही मिलेंगे जिनमें कोई खास तरह की विकृति ही हो। किन्तु अधिकांश
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