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सुचरित्रम्
पहले कुछ भी देख-सुन नहीं पाया। तब भरत महाराज ने समझाना शुरू किया-- भाई ! तुमने मृत्यु भय को स
थल रूप में महसस किया अतः विवशता थी, किन्तु मृत्यु का सूक्ष्म चिन्तन करा आर मन का संयमित बना लो तो वह स्वयंमेव सात्विकता तथा चरित्रशीलता में ढल जाएगी और यह सब स्वैच्छिक होगा। चरित्र के सुगठित हो जाने पर भले ही कोई सत्ता और सम्पत्ति के अम्बार पर बैठा रहे तब भी वह निष्परिग्रही हो सकता है। अपने अनुभव से अब मेरे चरित्र के लिये तुम्हारा क्या मत है? नागरिक के मुँह से कोई बोल नहीं फूटा- बस आँखों से पश्चात्ताप के आंसू झरते रहे और उसका सिर भरत महाराज के चरणों में लोट-पोट हो गया। चरित्र प्रयोग के भाँति-भाँति के क्षेत्र परन्तु आन्तरिकता एक __ व्यक्ति सबसे छोटा घटक (ईकाई यूनिट) है तो विश्व सबसे बड़ा घटक। इन दो के बीच में घटकों का जाल बिछा हुआ है। व्यक्ति के अपने सम्पर्कों के संकोच या व्यापकता का सवाल है कि कोई भी कितने अधिक घटकों के साथ अपने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सम्बन्ध जोड़ता है। ये सम्बन्ध ही उसकी सामाजिक मनोवृत्ति का परिचय देते हैं तथा इन्हीं से स्पष्ट होता है कि कोई भी व्यक्तित्व कितना लोकप्रिय अथवा अलोकप्रिय है या जाना अथवा अनजाना। सामाजिक सम्बन्ध ही व्यक्ति के विकास का धरातल भी बनते हैं जिनकी पृष्ठभूमि पर व्यक्ति विश्व के स्तर तक प्रगति कर लेता है।
यह सही है कि मूल घटक तो व्यक्ति ही होता है और शेष सभी घटकों को उसकी रचना कहा जा सकता है। किन्तु व्यक्ति की एकलता और सामूहिकता में भारी अन्तर आ जाता है। एक व्यक्ति अनुशासित भी रह सकता है और अनुशासन से बाहर भी जा सकता है। लेकिन कोई भी संगठन विधान, परंपराओं अथवा नियमों से बांध दिया जाता है कि पूरे संगठन के अनुशासनहीन होने का अवसर बहुत मुश्किल से ही आता है। इनमें भी अधिकतर अनुशासन से हीन होता है तो कोई उसका सदस्य ही यानी कि व्यक्ति। ___ फिर भी कई ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जिनमें विधान भी ठुकराए जाते हैं, परम्पराएँ भी तोड़ी जाती है और विरोध तथा विद्रोह की स्थिति में अराजकता का वातावरण भी बन जाता है। वर्तमान विश्व में अनेक देशों की स्थिति इस रूप में आंकी जा सकती है। आशय यह है कि बीच के घटकों में अनुशासनहीनता समा जाती है तो वह सम्बन्धित घटक की क्षेत्र अथवा कार्य व्यापकता के अनुसार अस्थिर, अशान्त और अराजक हो जाता है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि व्यक्ति-व्यक्ति की अनुशासनहीनता उतनी हानिप्रद नहीं होती जितनी हानि भयावह बीच के घटकों की अनुशासनहीनता से हो जाती है। तो इस दृष्टि से यदि व्यक्ति व्यक्ति के चरित्र निर्माण की अथक कोशिश की जाती है तब उसका दोहरा लाभ सुनिश्चित है। व्यक्ति यदि चरित्रवान् बना तो उसके जीवन के संवरने में कोई संदेह नहीं रहेगा-यह एक लाभ, लेकिन दूसरा लाभ इतने विशाल पैमाने पर और स्थाई रूप से होगा कि अन्य सारे घटकों में अनुशासनबद्धता एवं कार्यकुशलता गहरे तक पैठ जाएगी। मूलत: व्यक्ति के चरित्र निर्माण से अधिक अन्य कोई रचनात्मक कार्य हो, ऐसा नहीं माना जा सकता है।
इस संदर्भ में देखें कि व्यक्ति से ऊपर विश्व के स्तर तक ऐसे कौनसे प्रमुख घटक हैं जो व्यक्ति
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