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रलत्रय का तृतीय रत्न कितना मौलिक, कितना मार्मिक?
मूल स्वभाव है सभी बंधनों को तोड़कर हल्कापन लाते हुए ऊर्ध्वगामी बनना। संसार में आत्माएँ न्यूनाधिक रूप से अपने असदाचार से बन्धन रूप आवरण युक्त बनी रहती है। इन आवरणों को यानी वर्तमान विभाव को ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना से तोड़ना होता है। सब आवरणों का हट जाना और आत्मा का अपने मूल स्वभाव में पहुँच जाना ही उसका मोक्ष -चिर आनन्दमय स्थिति की उपलब्धि होता है। तो धर्म उस साधना का नाम है जिससे हम अपने मूल स्वभाव को पा सकें। यों धर्म का मूल स्वरूप मानव धर्म होगा। ____ इसलिए इस संसार में सर्वप्रथम जो प्राप्य है, वह है वस्तु स्वभाव का ज्ञान । वस्तु स्वरूप की चित्तवृत्ति पर संस्कार रूप में जिस की स्थापना होती है उसका नाम है ज्ञान । ऐसा सम्यक् ज्ञान हो जाने के बाद सत्य की जिज्ञासा जागती है। यह जिज्ञासा मानव को उसके विभाव से उसे शनैः शनैः दूर करते हुए स्वभाव की ओर गति कराती है। यह स्वभाव की ओर गति कराने वाली जो साधना या शक्ति है, उसी का नाम है चारित्र या आचार। चारित्र गठन के बाद मन की वृत्तियों पर विजय पाने का एक अभियान सा चलता है जिसका समापन सम्पूर्ण विजय के साथ ही होता है । चित्त संस्कारों में सर्वथा क्षय की दशा का नाम मोक्ष है। इस प्रकार आनन्द, सुख और शान्ति के ध्येय को प्राप्त करने के लिए सद्धर्म की आराधना अनिवार्य है। सच्चे धर्म के सिद्धान्त वे हैं जो मानव को कामनाओं और वासनाओं के सुखाभास से दूर करके सच्चे सुख की शोध में मन, इन्द्रियों तथा शरीर को प्रेरित करे और ऐसे धर्म सिद्धान्तों के आचरण में जो जुट जाता है, उसे ही सच्चा चरित्रवान जीवन कहा जा सकेगा। __ हिंसा की भर्त्सना करते हुए बताया गया है कि मनुष्य दूसरों को मारने से पहले वास्तव में अपना ही वध करता है। इस कारण जब तक आत्माभिमुखता और आत्मवत् भावना पैदा नहीं होगी तब तक वह सबके साथ मैत्री भाव से दूर ही रहेगा। इस अज्ञानवस्था की उसकी सारी क्रियाएँ स्व पर घातक ही सिद्ध होती है। भूल का मूल अज्ञान है और भूल करने वाले से भी भूल को छिपाने वाला बड़ा अपराधी होता है। भूल का भान मनुष्य को चरित्र के मार्ग पर आगे बढ़ने के बाद ही होता है और तब जिज्ञासा, ज्ञान, निर्णय और संयम का क्रम चलता है।
चरित्र का विकास आन्तरिक बल की नींव पर ही संभव है। चरित्र वास्तविकताओं के गर्भ से जन्म लेता है तथा उसको गठित एवं विकसित करने के लिए विशिष्ट उपायों का उल्लेख किया गया है। सदा विवेक जागृत रहना चाहिए तथा दूषित प्रवृत्तियों से दूर हटने का कार्य बाधित न हो। उपयोग की जब भी शून्यता आती है तो उससे अधर्म भड़क जाता है। साथ ही आसक्ति का विचार करना चाहिए जिससे परिग्रह का त्याग सहज बन सके। सत्य में श्रद्धा और विचारों में समभाव को अपनाने से ही चरित्रबल पल्लवित एवं पुष्पित होता है तथा सभी प्रकार के कर्मों के बन्धन नष्ट होते हैं।
चरित्र गठन एवं उसके विकास के उपायों को अपनाने व आजमाने के बाद परिग्रह के प्रति मूर्छा या आसक्ति की वृत्ति मन्द होने लगती है तथा अपरिग्रह वृत्ति की प्रबलता बढ़ती जाती है। बाह्य परिग्रह पास रहे तथा उसका उपयोग भी किया जाए, किन्तु यदि उसके प्रति आसक्ति या ममत्व न रहे तो वह परिग्रही वृत्ति नहीं। असल में भीतर की जो परिग्रह वृत्ति होती है वही परिग्रह है। परिग्रही वृत्ति
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