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________________ सुचरित्रम् धारक मार्गानुसारी बनता है। तब वह श्रावक के बारह व्रतों को स्वीकार करने योग्य बन जाता है। श्रावक के पांच अणुव्रत इस प्रकार हैं-(1) स्थूल प्राणातिपात विरमण, (2) स्थूल मृषावाद विरमण, (3) स्थूल अदत्तादान विरमण, (4) स्थूल मैथुन विरमण तथा (5) परिग्रह परिमाण व्रत। श्रमण के व्रतों में जहाँ 'सर्व' शब्द का उल्लेख है, वहाँ श्रावक को स्थूल त्याग ही करना होता है। देखा जाए तो श्रावक की कक्षा से उत्तीर्ण होकर साधक श्रमण बने तो उसकी साधना की सफलता सुनिश्चित हो सकती है। श्रमण पांचों प्रकार के पापों से सर्वांशतः विरत होता है और श्रावक अंशतः, अतः दोनों आचारों को सर्व विरति और देश विरति भी कहा जाता है। श्रावक के बारह व्रतों में इन पांच अणुव्रतों के सिवाय तीन गुणव्रत-दिशा परिमाण, उपभोग परिभोग परिमाण तथा अनर्थदंड विरमण एवं चार शिक्षाव्रत-सामायिक, देशावकाशिक, पौषध तथा अतिथि संविभागव्रत भी सम्मिलित हैं। ये सभी मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते हैं। इस प्रकार श्रमणाचार एवं श्रावकाचार मिलकर ऐसी आचार पद्धति का निर्माण करते हैं, जिसके आधार पर सम्पूर्ण विश्व में सुख एवं शान्ति के वातावरण का सृजन किया जा सकता है। व्यक्तियों द्वारा अपने व्रतों के पालन का समाज और संसार की व्यवस्था पर यह प्रभाव पड़ता है कि आत्मानुशासन की सुदृढ़ता के कारण बाहरी व्यवस्था पर अधिक दबाव नहीं रहता तथा नैतिकता एवं आध्यात्मिकता के प्रसार के कारण सभी ओर चरित्र का निर्माण होता है, वह सुगठित बनता है और उसके प्रति निष्ठा मजबूत बनती है। इस आधारभूमि पर सभ्यता, संस्कृति एवं परम्पराओं का सर्वहितकारी रूप ढलता है। सभी धर्मों का सार-अहिंसा किन्तु वहाँ तक पहुंचने की समस्या विश्व के सभी धर्म दर्शनों ने अहिंसा को मान्यता दी है। उनकी परिभाषाओं या अवधारणाओं में अन्तर हो सकता है किन्तु अहिंसा ने नाम पर किसी का विरोध नहीं है। किन्तु समाज विकास के इतिहास पर एक सरसरी नजर डालें तो दिखाई देगा कि अपनी जीवन शैली में और अपनी उपासना पद्धतियों में अहिंसा को सर्वोपरि स्थान देने में दीर्घ समय व्यतीत हुआ है तथा कई उतार चढ़ाव देखने पड़े हैं। ___ भगवान् महावीर तथा भगवान् बुद्ध के पूर्ववर्ती काल में लौकिक कार्यों में तो हिंसामय कार्य होते ही थे किन्तु धार्मिक कार्यों में भी हिंसा का पूरी तरह प्रचलन था। यज्ञ आदि में पशुओं की बलि दी जाती थी-नरमेध यज्ञ में तो मनुष्य को ही बलि पर चढ़ा दिया जाता था। इस पर भी यह सिद्धान्त बना लिया गया था कि वेद सम्मत धर्म कार्यों में की जाने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना जा सकता."वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति"। महावीर काल में हिंसक आचरण पर बड़ी चोट लगी, यज्ञ-याग में हिंसा का विरोध हुआ। सबसे बढ़कर अहिंसा की जो सूक्ष्म विवेचना उन्होंने की तथा तदनुसार जीवनचर्या ढाली-उससे अहिंसा के विकास एवं प्रसार को बड़ा बल मिला। इतना ही नहीं हिन्दू विचारकों ने भी अहिंसा को प्रधानता देनी शुरू की। तदनन्तर भारत के समूचे वातावरण में अहिंसा का समर्थन बढ़ता ही गया है। सामान्य आचरण में भी अहिंसा का विस्तार हुआ है। परन्तु अन्य धर्मों की आचार पद्धति में अहिंसा का प्रवेश धीरे-धीरे ही हुआ है। इस्लाम धर्म देश 136
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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