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मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग
से जुड़ा हुआ है। ___ आज के आर्थिक युग में परिग्रह की संग्रहवृत्ति, अधिकाधिक पाने की लालसा तथा तृष्णावितृष्णा के चारों ओर वीभत्स दृश्य देखे जा सकते हैं। यह संग्रह वृत्ति ही आज चारों ओर उथलपुथल मचाए हुए हैं। धन का अर्जन आज नीति तथा श्रम के बल पर करने की प्रवृत्ति घटती जा रही है और सशक्त व्यक्ति या वर्ग समाज में शोषण एवं अन्याय मचा कर संग्रह के अम्बार लगा रहे हैं। दूसरी ओर उनकी परिग्रह के प्रति ऐसी घातक संग्रह वृत्ति के कारण करोड़ों व्यक्ति बेरोजगारी और गरीबी के दलदल में गहरे से गहरे धंसते जा रहे हैं। यह मात्र अधर्म की ही स्थिति नहीं है, बल्कि समाज एवं मानवता के घात की भी स्थिति है। बाइबिल में इस संग्रह वृत्ति की कड़ी आलोचना करते हुए कहा गया है कि सुई की नोक में से ऊँट कदाचित् निकल जाए, परन्तु धनवान व्यक्ति स्वर्ग में कदापि प्रवेश नहीं पा सकता है।
श्रमण या साधु को इस दृष्टि से निग्रंथ कहा गया है जिसके परिग्रह की कोई ग्रंथि नहीं बचती। वह जीवन पर्यन्त सजीव या निर्जीव अल्प या बहुत, स्थूल या सूक्ष्म किसी भी प्रकार की वस्तु का स्वयं संग्रह नहीं करता है, दूसरों से संग्रह नहीं करवाता है तथा संग्रह करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करता है। परिग्रह के पाप से अपनी आत्मा को सर्वथा विरत रखना ही अपरिग्रह है (आचारांग 2-15)। साधु परिग्रह मात्र का त्यागी होता है। वह पूर्ण रूप से अनासक्त एवं मूर्छारहित होता है। संयम की साधना के लिए उसे जिन उपकरणों की अनिवार्य रूप से आवश्यकता होती है उन पर भी उसका ममत्व नहीं होता। सच्चा साधक वही है जिसे अपने शरीर तक का भी ममत्व नहीं होता। वैसा साधक ही मुक्ति पथ का दृष्टा होता है।
श्रमणाचार की दृष्टि से अपरिग्रह व्रत की प्रतिज्ञा है-जीवन पर्यन्त के लिए सर्वपरिग्रह विरमण। इससे सम्बन्धित पांच भावनाएँ-(1) मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्द में राग द्वेष नहीं करना, समभाव रखना, (2) मनोज्ञ-अमनोज्ञ रूप में रागद्वेष नहीं करना, समभाव रखना, (3) मनोज्ञ-अमनोज्ञ गंध में रागद्वेष नहीं करना, समभाव रखना, (4) मनोज्ञ-अमनोज्ञ रस में रागद्वेष नहीं करना, समभाव रखना तथा (5) मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्श में रागद्वेष नहीं करना, समभाव रखना। इस प्रकार अपरिग्रह महाव्रत की सुरक्षा के लिए पांचों इन्द्रियों के पांचों विषयों-शब्द, रूप, गंध, रस तथा स्पर्श के प्रति समभाव रखने का विधान किया गया है। इस व्रत की सामान्य पालना से कई सामाजिक तथा आर्थिक समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांचों व्रत सर्वपरित्याग के कारण श्रमण द्वारा पालनीय होने पर महाव्रत कहलाते हैं, वहीं श्रावकों-गृहस्थों के लिए इनके आंशिक पालन का प्रावधान है, जहाँ इनकी संज्ञा अणुव्रत हो गई है यानी बड़े और छोटे व्रत। ये पांचों व्रत नैतिक जीवन में शाश्वत तत्त्व है। काल और देश की सीमा का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। ये मानवीय नैतिकता के मूलभूत सिद्धान्त हैं।
श्रावकाचार के अनुसार व्यक्ति को सद्गृहस्थ (श्रावक) बनने के लिए श्रुत-चारित्र रूप धर्म तथा व्रतों की नैतिक मर्यादाओं को स्वीकार करना होता है। इस स्वीकृति के बाद वह पैंतीस गुणों का
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