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________________ चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या ही चलना होता है, बीच में कहीं विश्राम नहीं होता (इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रान्त भवन में टिक रहना : किन्तु पहुँचना उस सीमा पर, जिसके आगे राह नहीं- जयशंकर प्रसाद) इस प्रकार चलते रहना ही मानव जीवन का मंत्र है और उसका चरित्र। ब्राह्मण ग्रंथों में एक मंत्र आता है- चरैवेति चरैवेति। इसका अर्थ है- चलते रहो, चलते रहो। चलते रहने का विश्लेषण किया गया है- कर्त्तव्य पथ में सोने वाले के लिये कलियुग है, जम्हाई लेने वाले के लिये द्वापर है, उठ-बैठने वाले के लिये त्रेता है और पथ पर चल पड़ने वाले के लिए सतयुग है- इसीलिए कहा गया कि चलते रहो, चलते रहो अर्थात् चरैवेति, चरैवेति। चलते रहने वाले के लिये सदा सतयुग रहता है। संसार में यदि कोई कहीं स्थायी डेरा जमाना भी चाहें तो महाकाल किसी को कहाँ जमने देता है? अब यह दूसरी बात है कि चलते रहने के बावजूद कोई विपथगामी तो जाता है। उसकी विपथगामिता या उल्टा चलना चरित्रहीनता का द्योतक बनता है। यों चलने के बारे में भी कहा गया है कि चलो और चलते रहो लेकिन संभल कर। जैसे सर्प गरुड़ के निकट डरता हुआ बहुत संभलकर चलता है कि कहीं वह गरुड़ के चंगुल में न फँस जाए, उसी प्रकार मानव को सांसारिकता की मोहक कामनाओं, अन्तरहित इच्छाओं तथा पतन कराने वाली वासनाओं से सतर्क रहते हुए · चलना चाहिए (गिद्धोवमे उ नच्चाणं कामे संसार वड्डणे : उरगो सुवण्ण पासेव्व संकमाणो तणुं चरे- उत्तराध्ययन 14/47)। चरण, आचरण और आचार शब्दों का भी अन्तर्भाव एक ही है किन्तु इन शब्दों का व्यवहार अलग-अलग रूप से किया जा सकता है। जैसे जीवन में सामान्य रूप से सदगणों को अपनाने का नाम आचरण है तो आचार उस साधना पद्धति का संकेत माना जाता है जो आत्मा के भीतर चलने का बल और संबल प्रदान करती है। इस आचार शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है- आचार शब्द 'आ' उपसर्ग चर् (गति भेसंणिया) धातु से निर्मित है। गति भेक्षणार्थक चर् धातु में द्यञ् प्रत्यय जोड़ने पर 'आचार' शब्द बनता है। इसमें 'आ' उपसर्ग मर्यादा के अर्थ में तथा 'चार' चलने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यों कालनियमादि के लक्षण से मर्यादापूर्वक चलना आचार है। आचार के लक्षण के रूप में मर्यादापूर्वक चलना, मर्यादित जीवन बिताना हो सकता है अगर व्यक्ति अपने जीवन को मर्यादापूर्वक नहीं रखता है तो उसका आचरण भी कदापि शुद्ध नहीं रह पाता है। जैन परम्परा में जो अनुष्ठान जीवन व्यवहार अथवा आचरण ज्ञानादि पंचविध आचारों के अनुकूल हो, वह आचार कहलाता है और जो इनके प्रतिकूल हो वह अनाचार (आ मज्जाया वयणो, चरणं चारो त्ति तीए आयारो : सो होई णाण दंसण चरित्ततव-विरिय वियप्पो-अभिधान राजेन्द्र कोष भाग-2 पृष्ठ 330/368)। __ चरित्र को समझने के लिये सामान्य जन हेतु 'चाल-चलन' शब्द बहुत उपयुक्त है। चरण शब्द शुद्ध रूप से चलने के अर्थ में सम्पन्न है तथा पैरों का यह परिष्कृत नाम चलने की सफलता, श्रेष्ठता एवं अजेयता का प्रतीक है- तभी तो चरण शरण मांगी जाती है अर्थात् उन महापुरुषों के चरणों में शरण मिले जो चरण चलते रहने के बाद लक्ष्य प्राप्त कर चुके हैं। चरणों में जो प्रणाम किया जाता है, वह वरिष्ठ जन से महापुरुष एवं प्रभु के चरण तक पहुँचता है। यों चरण प्रणम्य माना गया है। लेकिन 111
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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