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चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या
जीवन का अर्थ और जीवन की इति है "चरित्र"
गथों में एक आख्यान है गुरु चंद्ररुद्राचार्य का। वे एक
"साधक अवश्य थे, किन्तु अपने क्रोध को किंचित् मात्र भी साध नहीं पाए थे। वे अपने नाम के अनुरूप चन्द्र कम और रुद्र अत्यधिक थे। परन्तु गुरु-शिष्य की युति भी अति विचित्र थी। जहां एक ओर गुरु रुद्र रूप क्रोधी थे, वहीं दूसरी ओर उनका शिष्य अतिशय अक्रोधी सरल
और विनयवान था। उसके मन में सदा यही चिन्तन चलता रहता था कि वह अपने गुरु के गुणों को ही देखे और उनके प्रति परम श्रद्धा-भाव रखे यह सोचते हुए कि
गुरु-गोविन्द दोनों खड़े, किनके लागू पायः बलिहारी गुरु-देव की, गोविन्द दियो बताय।
वह गुरु के क्रोध को अग्नि के समान नहीं, चन्द्र के समान शीतल महसूस कराने के लिये हमेशा तत्पर रहता था।
एक बार गुरु-शिष्य सुदूर प्रदेश के लिए विहार पर निकले। बीच में बियावान वन को भी उन्हें पार करना पड़ा। वह वन भाँति-भाँति के घने वृक्षों-वल्लरियों आदि से इतना आच्छादित था कि दिन में भी 'हाथ को हाथ न सूझे' इतना अँधेरा छाया हुआ था। गुरु वृद्ध एवं दुर्बल थे, अतः शिष्य विहार में उन्हें अपने कंधों पर बिठा कर ले
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