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क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती?
तणन
पणदशना
समाया हुआ रहता है। ऐसी आत्मोपलब्धि को मानव जीवन का लक्ष्य बनाने से स्वहित तथा परहित का विकास भी होगा तथा विस्तार भी। और इस समय तो उन मानवीय मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा का प्रश्न है, सो उसे भी इस लक्ष्य से सुलझाया जा सकेगा। मानवीय मूल्यों का निर्माण संभव होगा सत्य की भूमिका पर : ___ सभी दर्शनों का निर्विवाद मत है कि सत्य भगवान् है (सच्चं खलु ही भगवं-महावीर) तथा सत्य के साक्षात्कार को भगवत स्वरूप का दर्शन कहा गया है। सत्य का साक्षात्कार या पर्ण: गहन साधना का प्रतिफल होता है। सत्य की स्थिति को स्वर्ण के दृष्टान्त से समझें। सोना ढलाढलाया डलियों, बिस्कुटों या पाटों में नहीं मिलता। उसके कण तो बड़ी-बड़ी चट्टानों में इस तरह बिखरे और चिपके होते हैं कि उसका भाग शतांश से भी कम होना कहा जाता है। अपार परिश्रम तथा रासायनिक प्रक्रियाओं के बाद संचित किए हुए सोने को विक्रय हेतु अलग-अलग आकार दिये जाते हैं। सौ गुने परिश्रम की तुलना में एक गुना सोना प्राप्त होने के कारण ही सोने का मूल्य इतना ज्यादा होता है। यह तो स्थूल बात है, किन्तु इसी को सूक्ष्म रूप में लें तो सत्य का संकलन भी दुरुह सत्य का संकलन करना पड़ता है और उसी से उसका पूर्ण रूप संभव बनता है। सत्य का संकलन करें, आकलन करें, विश्लेषण करें और समीक्षा से तपावें तब जाकर सत्यांश का स्वरूप निखरता है और यह साधना चलती रहती है।
सत्यांशों को समझने तथा विश्लेषित करने की सफल दृष्टि है-अनेकान्तवादी दृष्टि । दर्शन शास्त्र को भगवान् महावीर की यह अनुपम भेंट है। एकान्तवादी दृष्टि रखने से किसी भी वस्तु या तत्त्व का एक पहलू ही दृष्टिगत होगा। दृष्टि को अनेकान्तवादी बनाएंगे तभी उसके सारे पहलू यानी उसका पूरा स्वरूप समझ में आ सकेगा। अंधों और हाथी की कहानी से इस दृष्टि की वास्तविकता साफ होती है। अपनी ही मान्यता का आग्रह न रख कर सभी की भावनाओं को सुनना, समझना तथा उसमें रहे हुए सत्यांश को पकड़ना चाहिए। इन्हीं सत्यांशों के संकलन से पूर्ण सत्य का चित्र उभरता है। अनेकान्तवाद विचार समन्वय का सम्बल है और विचारों के विवादों को सुलझा कर एक दूसरे को समान वैचारिकता से जोड़ता है। यही दृष्टि सत्य की दृष्टि होती है। सत्य की इसी भूमिका पर नये मानव का निर्माण करना होगा तभी मानवीय मूल्यों की पुनः प्रतिष्ठा प्रभावशाली बन सकेगी। व्यक्ति की अपार इच्छाओं के नियंत्रण हेतु सामाजिक व्यवस्था भी चाहिए: ___ हम यह जान चुके हैं कि व्यक्ति की अपार तृष्णा तथा स्वार्थवादिता से ही मानवीय मूल्य आहत होते हैं और कई बार व्यक्ति का यह आवेग इतना जबरदस्त हो जाता है कि राज्य की या अन्य सामूहिक शक्ति के द्वारा भी उसे रोक पाना कठिन हो जाता है। यह भी जाना जा चुका है कि व्यक्ति के कार्यों से पूरा समाज और विश्व प्रभावित होता है तो सामाजिक शक्ति का भी व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता है। यह सही है कि निष्ठा और संयम के धनी साधक स्वयं ही अपने मन और जीवन पर सम्यक् नियंत्रण कर लेते हैं तथा सारे विश्व के लिये आदर्श प्रस्तुत कर जाते हैं किन्तु ऐसे विरल महामानवों की संख्या का कुल मानव जाति की संख्या के साथ अनुपात नगण्य-सा होता है। अतः