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प्रस्तावना
चारित्रिक पतन से होने वाला भाव प्रदूषण प्रभावकारी होता है। इतिहास साक्षी है कि जिन राजाओं को जीतना कठिन होता था उन्हें विषकन्याओं अथवा अप्सराओं के द्वारा पराजित कर दिया जाता था। भावों की विकृति के द्वारा ही ऋषि-महर्षियों को तपोभ्रष्ट कर दिया जाता था। जब तक चरित्र सुरक्षित है, सभ्यता-संस्कृति, धर्म और राष्ट्र सुरक्षित है। चरित्र की शक्ति ऐसी अमोघ शक्ति है कि जिसकी तुलना अन्य किसी शक्ति से नहीं की जा सकती है। ___ बड़ी-बड़ी शक्तियों से अजेय बने रहे एक छोटे-से देश स्पार्टा के एक सैनिक से किसी दूसरे देश के सैनिक ने पूछा-'यदि आपके देश में कोई व्यभिचार का सेवन कर ले तो उसे क्या सजा दी जाती
स्पार्टा के सैनिक ने कहा-'उसका वह बैल छीन लिया जाता है जिसकी पूंछ एक पर्वत पर हो और मुंह दूसरे पर्वत पर।'
सैनिक ने कहा-'ऐसा बैल तो हो ही नहीं सकता है, आप ऐसी असम्भ बात कैसे कर रहे हैं?' स्पार्टा के सैनिक ने कहा- 'ऐसा बैल असंभव है तो स्पार्टा में व्यभिचार भी असंभव है।'
स्पार्टा की अजेयता का मुख्य कारण था उसकी चरित्र निष्ठा। जहाँ के नागरिक चरित्रनिष्ठ होते हैं वहाँ के वायुमण्डल में भावात्मक वर्तुल बन जाता है। मैं तो यहाँ तक कहने को तैयार हूँ कि जिस देश के पास अपना चारित्र हो, जहाँ का हर व्यक्ति चारित्रनिष्ठ, ओनेस्ट (Honest) सही अर्थों में धार्मिक एवं देशभक्त हो उस देश पर अणु-आयुध आदि किसी भी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रभावी नहीं हो सकते। वहाँ का सम्पूर्ण वायुमण्डल ही प्रबलतम ऊर्जा का संवाहक हो जाता है। ___ यह एक मनोवैज्ञानिक ही नहीं वैज्ञानिक तथ्य है कि जहाँ एक शक्ति प्रबलतम रूप में प्रभावी हो जाती है, वहाँ उसकी विरोधी शक्ति टिक ही नहीं सकती है। महर्षि पतंजलि का तो स्पष्ट उद्घोष है कि 'अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः' अर्थात् जहाँ अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है वहाँ वैर भाव विस्मृत हो जाता है। हम देखते हैं तीर्थंकरों, ऋषि-महर्षियों की सन्निधि में शेर, गाय और बकरी, सर्प
और नकुल जन्म-जात वैर को विस्मृत कर एक साथ बैठे रहते हैं, क्योंकि उन महापुरुषों के चारों ओर पूर्ण अहिंसा का वर्तुल होता है।
ठीक इसी प्रकार चूँकि चरित्र भी अहिंसा का ही एक अंग है, अतः चरित्र की जहाँ प्रतिष्ठा होगी वहाँ उसका विरोधी तत्त्व व्यभिचार नहीं होगा और जहाँ व्यभिचार नहीं होगा वहाँ अनाचार, अत्याचार, द्वंद्व-संघर्ष, युद्ध-लडाई को कोई अवकाश प्राप्त हो ही नहीं सकता है। फिर वह देश अजेय कैसे नहीं बनेगा?
मध्याह्न के दिव्य दिवाकर की तरह स्पष्ट यथार्थ होते हुए भी विचारणीय है कि यह तथ्य बुद्धिजीवियों या देश के पुरोधाओं की समझ में क्यों नहीं आ रहा है? क्यों वे स्वयं पाश्चात्य सभ्यता के अनुकरण के पिछलग्गू बने हुए हैं? संपूर्ण सभ्यता या संस्कृति को ही नहीं संपूर्ण राष्ट्रीय अस्मिता
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