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________________ प्रस्तावना महास्थविर श्री शांति मुनि जी म.सा. धर्म-साधना, अध्यात्म एवं संस्कृति की आत्मा है चरित्र। चरित्र के अभाव में न संस्कृति, संस्कृति रहेगी और न अध्यात्म-अध्यात्म। चरित्र साधना की तो मूल धूरी है ही, जीवन व्यवहार की भी अमूल्य निधि है। जैसे नमक के अभाव में सब्जी नीरस लगती है वैसे ही चरित्र के अभाव में जीवन सत्व-सारहीन ही होगा? भारतीय संस्कृति की तो आत्मा ही चरित्र है। चरित्र के अभाव में भारतीय संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। चरित्र शब्द का प्रयोग भारतीय संस्कृति में विशेषकर जैन संस्कृति में अत्यंत मौलिक एवं निगूढ अर्थ में हुआ है। वहाँ चरित्र का अर्थ केवल आचरण से ही नहीं लिया जाता है अपितु स्वरूप में रमणता-सिर्फ चेतना में ही विचरण करने को चरित्र शब्द से अभिसंजित किया गया है। वहाँ चयरित्त करं चरित्त होइ आहियं' कहकर चरित्र शब्द को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। चारित्र आत्मा की वह अवस्था है जहाँ चेतना पर पदार्थ-कर्म सत्ता से सर्वथा विलग हो जाती है- अपने परम विशुद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाती है जो चेतना अनादिकाल से जड़-कर्म के साथ दूध-पानी की तरह एकाकार हो रही है और उस स्थिति में अनंत दुःखों का भाजन बनती चली आ रही है, उसका उस दुःख के निमित्त कर्म का सर्वथा सर्वकाल के लिए अलग होकर एकाकी स्वतंत्र हो जाना चरित्र है। उस अवस्था में चेतना की स्वरूप रमणता आनंदमय अवस्था ही शेष बचती है। चरित्र शब्द का एक दूसरे अर्थ में निरूपण हुआ है कारण में कार्य का उपचार करके। चूँकि ब्रह्मचर्य-यम-नियम-महाव्रतों की आराधना आदि ऐसी सभी प्रकार की साधना-आराधना जो आत्मा से कर्म मेल को साफ करती है, को भी चरित्र कहा जाता है, किन्तु यह चरित्र शब्द का औपचारिक अर्थ है। इस अर्थ के अनुसार भी चिंतन करें तो वर्तमान परिवेश चरित्र से कितनी भयावह स्थिति पर पहुँच गया है। खेद है कि आज चरित्र शब्द अपनी मौलिक अर्थवत्ता को खोता जा रहा है। इसका प्रयोग केवल बाह्य आचार व्यवहार रूप औपचारिक अर्थ में ही सीमित हो गया है। वर्तमान परिवेश में तो चरित्र शब्द ही नकारात्मक होता जा रहा है। जिस भारतीय संस्कृति और भारत वर्ष की पहचान उसके उदात्त चरित्र के कारण होती थी, आज उसकी पहचान के वे अर्थ खोते जा रहे हैं। ___ बदलते परिवेश में चरित्र की चर्चा दकियानुसी एवं मजाक-सी लगने लगी है। आज समूची जीवनशैली जीने के तौर-तरीके, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ जिस तेजी से बदल रहे हैं वहाँ चरित्र सुरक्षा की कहीं कोई गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही है। एक समय था जब भारतीय संस्कृति में संध्या के पश्चात् लड़कियाँ घर के बाहर नहीं घूमती थी। किसी पड़ोस के घर में भी जाना होता तो घर का कोई सदस्य साथ होता था। ये संस्कार उनके जेहन
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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