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________________ ज्ञान विज्ञान का विकास एवं सामाजिक जीवन की गति सकता है। आज की परिस्थितियों में समाज पूरे संसार तक फैला है जिसमें मानव जाति के सिवाय सभी प्राणियों (क्रूर जंगली पशु तक) का समावेश हो सकता है। प्राचीनकाल में सम्पर्क सीमित था तो संबंधों का जाल भी सीमित था, किन्तु उस समय की संस्कृति एवं सभ्यता के अनुसार संवेदनशीलता की कमी नहीं थी। धार्मिक प्रभाव भी इसका सहायक था। वैसे वर्ण-व्यवस्था की रचना भी सामाजिक संबंधों को सुव्यवस्थित करने के उद्देश्य से ही हुई थी, किन्तु उसका उद्देश्य सामाजिक समानता का नहीं था, अतः जो शक्ति समूह थे, वे ही मुख्यतः वर्ण-व्यवस्था से लाभान्वित हुए। बाद में शक्ति समूहों द्वारा अपने हित में इस व्यवस्था का दुरुपयोग शुरु हुआ तो निचले स्तर के लोगों पर अन्याय-अत्याचार का वेग बढ़ गया। इस सामाजिक उत्पीड़न से दलित वर्गों का असन्तोष बढ़ता रहा और वे मुख्य धारा से कटने लगे। यह दशा आज भी किन्ही अंशों में चल रही है। परिणामस्वरूप सामाजिक संबंधों का संकट गहराता रहा है। इसमें आर्थिक विषमता ने भी बड़ी हानि पहुंचाई है। संबंधों को संवेदनशील बनाने के लिये जिन तत्त्वों की आवश्यकता होती है, वे तत्त्व आर्थिक विषमता की सामाजिक स्थिति में क्षत-विक्षत होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं। परस्पर विश्वास का मुख्य गुण ही जैसे लुप्त हो रहा है, जो निकटस्थ रक्त संबंधों में भी टूटता नजर आ रहा है। संबंधों को निभाने में जो उचित समय दिया जाना चाहिए, उसका भी लोगों के पास अभाव है। कठोर या अनुचित व्यवहार किया जाता है तो उसका आधार मात्र हित भाव नहीं रहा है बल्कि वह स्वार्थ से प्रभावित होता है। सबसे ऊपर निजी स्वार्थ इतना हावी हो गया है कि पति-पत्नी या पिता पुत्र के बीच भी विश्वास की डोरी मजबूत नहीं रही। अतः सामाजिक संबंधों के संकट मोचन के लिये कठिन प्रयास आवश्यक हो गये हैं। सामाजिक संबंधों के सम्यक निर्वाह हेतु चरित्र गठन परमावश्यक : बहुआयामी विकास विश्लेषण से यह तथ्य स्पष्टतः उभर कर आता है कि ज्ञान एवं विवेक की प्राथमिक आवश्यकता तो सदा रहती ही है, किन्तु व्यक्ति, समाज या विश्व में उन्नति या अवनति के जब-जब भी दौर चले हैं, उनमें प्रधान कारक चरित्र ही दिखाई दिया है। जब-जब व्यक्तियों में चरित्र संपन्नता रही तो समाज में भी नैतिकता एवं मर्यादा का उच्च स्तर बना रहा, लेकिन जब-जब व्यक्तिगत ‘एवं समूहगत चरित्र में गिरावट आई है, समाज में संबंधहीनता एवं द्वन्द का दौर-दौरा रहा है। वास्तविकता तो यह है कि व्यक्ति या समाज की उन्नति या अवनति में चरित्र ही पहला और आखिरी कारक रहा है। चरित्रशीलता है तो अपने स्वार्थों की अपेक्षा समाज हित का अधिक ध्यान है और दूसरों के लिये त्यागबलिदान का भाव है। यदि चरित्रहीनता है तो अपने स्वार्थों का अंधापन है और वैसी दशा में संघर्ष, वैर, विरोध तथा हिंसा के फैलाव के सिवाय और कैसा वातावरण हो सकता है? सारांश यह है कि चरित्र गठन परमावश्यक है। चरित्र गठन का ही दूसरा नाम है व्यक्ति का निर्माण और मानवता का संचार । व्यक्ति चरित्रशील बनेगा तो समाज स्वतः ही सृजनशील हो जाएगा। समाज कहें या संसार, चरित्र ही इसके विकास का मूलाधार है, जिसका धारक होगा व्यक्ति या मानव और संसार संवरेगा चरित्रशीलता की चमक से ही। विजय का यही शाश्वत मार्ग है।
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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