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= ११ + १८ 1 २६, ५७२६ = १६५३ पिण्ड हुआ; इसमें चार का भाग दिया तो १६५३ + ४ = ४१३ लब्ध, १ शेष, अतः देवयोनि हुई । अथवा बिना गणित क्रिया के केवल प्रश्नाक्षरों पर से ही योनि का ज्ञान करना चाहिए। जैसे मोहन का 'जामुन' प्रश्नवाक्य है। इसमें (ज् + आ + म् + उ + न् + अ) ये स्वर और व्यंजन हैं । इस विश्लेषण में ज् मनुष्ययोनि तथा म् और न् पक्षी योनि हैं । संशोधन करने पर पक्षी योनि के वर्ण अधिक हैं अतः पक्ष योनि हुई । अब यहाँ पर यह शंका हो सकती है कि पहले नियम के अनुसार देवयोनि आयी और दूसरे नियम के अनुसार पक्षी योनि, अतः दोनों परस्पर विरोधी हैं। लेकिन यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि द्वितीय नियम के अनुसार प्रातःकाल के प्रश्न में पुष्प का नाम पूछना चाहिए, फल का नहीं । यहाँ फल का नाम बताया गया है, इससे परस्पर में विरोध आता है । अतएव खूब सोच-विचारकर प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। इस प्रकार के प्रश्नों का उत्तर देते समय सर्वदा गणित क्रिया का आश्रय लेना चाहिए। लग्न बनाकर ग्रहस्थिति पर से जो फलादेश कहा जाएगा, वह सर्वदा सत्य और यथार्थ होगा ।
देवयोनि जानने की विधि
अकारे' कल्पवासिनः । इकारे भवनवासिनः । एकारे व्यन्तराः । ओकारे ज्योतिष्काः । तद्यथा - क कि के को इत्यादि । अग्रे नाम्ना विशेषेण वर्गस्य क्षितिदेवताः ब्राह्मणाः, राजानः, तपस्विनश्चानुक्रमेण ज्ञातव्या इति देवयोनिः ।
अर्थ- देवयोनि के वर्णों में अकार की मात्रा होने पर कल्पवासी, इकार की मात्रा होने पर भवनवासी; एकार की मात्रा होने पर व्यन्तर और ओकार की मात्रा होने पर ज्योतिष्क देवयोनि होती है । जैसे1 -क में अकार की मात्रा होने से कल्पवासी; कि में इकार की मात्रा होने से भवनवासी; के में एकार की मात्रा होने से व्यन्तर और को में ओकार की मात्रा होने से ज्योतिष्क योनि होती है। आगे नाम की विशेषता के अनुसार पृथ्वीदेवता - ब्राह्मण, राजा और तपस्वी क्रम से जानने चाहिए । इस प्रकार देवयोनि का प्रकरण पूर्ण हुआ ।
विवेचन- व्यंजनों से सामान्य देवयोनि का विचार किया गया है, किन्तु मात्राओं से कल्पवासी आदि देवों का विचार करना चाहिए। जैसे - मोहन का प्रश्न वाक्य 'किसमिस' है, इस वाक्य का आदि वर्ण 'कि' है। अतः देवयोनि हुई, क्योंकि मतान्तर से प्रश्नवाक्य के प्रारम्भिक अक्षर के अनुसार ही योनि होती है । 'कि' इस वर्ण में 'इ' की मात्रा है अतः भवनवासी योनि हुई । योनि का विचार करते समय सदा किसी पुष्प का नाम पूछना ज्यादा सुविधाजनक होता है।
१. तुलना - के. प्र. र., पृ. ५८ । “देवा अकारवर्गे तु दैत्याश्चैव कवर्गकम् । मुनिसंज्ञं तवर्गं तु पवर्गे राक्षसाः • स्मृताः । देवाश्चतुर्विधा ज्ञेयाः भुवनान्तरसंस्थिताः । कल्पवासी ततो नित्यं शेषं क्षिप्रमुदाहरेत् ॥ एकविंशहता प्रश्नाः सप्तमात्राहतानि च । क्रमभागं पुनर्दद्याद् ज्ञातव्यं देवदानवम् एकं भुवनमध्यं द्वितीयम् अन्तरास्थितम् । तृतीयं कल्पवासी च शून्ये चैवहि व्यन्तराः॥ " - चं. प्र, श्लो, ५४, २४८-२५० ।
२. विशेष - क. मू ।
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केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि