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अर्थ-जीवयोनि के द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुल ये चार भेद हैं। अ ए क च ट त प य श ये अक्षर द्विपदसंज्ञक; आ ऐ ख छ ठ थ फ र् ष ये अक्षर चतुष्पदसंज्ञक; इ ओ ग ज ड द थ ल स ये अक्षर अपद संज्ञक और ई औ घ झ ढ ध भ व ह ये अक्षर पादसंकुलसंज्ञक होते हैं।
बिवेचन-ज्योतिषशास्त्र में जीवयोनि का विचार दो प्रकार से किया गया है, एक-प्रश्नाक्षरों से और दूसरा-प्रश्नलग्न एवं ग्रहस्थिति आदि से। प्रस्तुत ग्रन्थ का विचार प्रश्नाक्षरों का है। लग्न के विचारानुसार मेष, वृष, और धनु चतुष्पद; कर्क और वृश्चिक पादसंकुल; मकर और मीन अपद एवं कुम्भ, मिथुन, तुला और कन्या द्विपदसंज्ञक हैं। ग्रहों में शुक्र और बृहस्पति द्विपदसंज्ञक, शनि, सूर्य और मंगल चतुष्पद संज्ञक, चन्द्रमा, राहु पादसंकुलसंज्ञक तथा शनि और राहु अपदसंज्ञक है। जीव योनि का ज्ञान होने पर कौन-सा जीव है, इसको जानने के लिए जिस प्रकार की लग्न हो तथा जो ग्रह बली होकर लग्न को देखे अथवा युक्त हो उसी ग्रह का जीव कहना चाहिए। यदि लग्न स्वयं बलवान् और उसी जाति का ग्रह लग्नेश हो तो लग्न की जाति का ही जीव समझना चाहिए। इस ग्रन्थ के अनुसार जीवयोनि का निर्णय कर लेने के पश्चात् अ ए क च ट त प य श ये द्विपद, आ ऐ ख छ ठ थ फ र ष ये चतुष्पद, इ ओ ग ज ड द ब ल स ये अपद और ई औ घ झ ढ ध भ व ह पादसंकुल होते हैं, पर यहाँ पर भी “परस्परं शोधयित्वा तत्र योऽधिकः स एव योनिः” इस सिद्धान्तानुसार परस्पर द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुला योनि के अक्षरों को घटाने के बाद जिस प्रकार की जीवयोनि के अक्षर अधिक शेष रहें, वही जीवयोनि समझनी चाहिए। जैसे-मोहन ने प्रश्न किया कि मेरे मन में क्या है? यहाँ मोहन के मुख से निकलनेवाले प्रथम वाक्य को भी प्रश्नवाक्य 'माना जा सकता है, अथवा दिन के प्रथम भाग में प्रश्न किया हो तो बालक के मुख से पुष्प का नाम, द्वितीय भाग का प्रश्न हो तो स्त्री के मुख से फल का नाम, तृतीय भाग का प्रश्न हो तो वृद्ध के मुख से वृक्ष या देवता का नाम और रात्रि का प्रश्न हो तो बालक, स्त्री और वृद्ध में-से किसी एक के मुख से तालाब या नदी का नाम ग्रहण कराकर उसी को प्रश्नवाक्य मान लेना चाहिए। सत्य फल का निरूपण करने के लिए उपर्युक्त दोनों ही दृष्टियों से फल कहना चाहिए। मोहन दिन के ६ बजे आया है। अतः यह दिन के प्रथम भाग का प्रश्न हुआ, इसलिए किसी अबोध बालक से पुष्प का नाम पूछा तो बालक ने जुही का नाम बताया। प्रश्नवाक्य जुही का विश्लेषण ज् + उ + ह् + ई यह हुआ। ज् और ह दो वर्ण जीवाक्षर, उ धात्वक्षर और ई मूलाक्षर है। संशोधन करने पर जीवयोनि का एक वर्ण अवशेष रहा, अतः यह जीवयोनि हुई। अब द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुल के विचार के लिए देखा तो पूर्वोक्त, विश्लेषण में ह् + ई ये अक्षर पादसंकुल और ज् अपद संज्ञक हैं। संशोधन करने से यह पादसंकुला योनि हुई। अतः मोहन के मन में पादसंकुलसम्बन्धी जीव की चिन्ता समझनी चाहिए। पादसंकुलयोनि के विचार में स्वेदज और अण्डज जीवों को ग्रहण किया गया है।
६४ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि