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________________ संयुक्त प्रश्नाक्षर और उनका फल अथ संयुक्तानि कादिगादीनि संयुक्तानि प्रश्नाक्षराणि प्रश्ने लाभः पुत्रादिवस (श) क्षेमंकराणि। जादिगादीनि प्रश्नाक्षराणि लाभकराणि स्त्रीजनकारीणि। अर्थ-संयुक्तों को कहते हैं-कादि-क च ट त प य श इन प्रथम वर्ग के अक्षरों को गादि-ग ज ड द ब ल स इस तृतीय वर्ग के अक्षरों के साथ मिलाने से संयुक्त प्रश्न बनते हैं। संयुक्त प्रश्न होने पर लाभ होता है और पुत्रादि के कारण कल्याण होता है। यदि प्रश्नाक्षर जादि, गादि अर्थात् तृतीय वर्ग के ज ग ड द ब ल स हों तो लाभ करानेवाले तथा स्त्री-पुत्रादि की प्राप्ति करानेवाले होते हैं। विवेचन-पहले आचार्य ने संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित, अनभिहित, अभिघातित, आलिंगित, अभिधूमित और दग्ध ये आठ भेद प्रश्नों के कहे हैं। इन आठ प्रश्नभेदों का लक्षण और फल बतलाते हुए सर्वप्रथम संयुक्त का फल और लक्षण बताया है। प्रथम और तृतीय वर्ग के अक्षरों के संयोग वाले प्रश्न संयुक्त कहलाते हैं। संयुक्त प्रश्न होने पर लाभ होता है। केरलसंग्रहादि कतिपय ज्योतिष ग्रन्थों में अपने शरीर को स्पर्श करते हुए प्रश्न करने का नाम ही संयुक्त प्रश्न कहा है। इस मत के अनुसार भी संयुक्त प्रश्न होने पर भी लाभ होता है। उदाहरण-जैसे देवदत्त प्रश्न पूछने आया कि मैं परीक्षा में पास होऊँगा या नहीं? गणक ने किसी अबोध बालक से फल का नाम पूछा तो उसने 'लौका' का नाम लिया। अब प्रश्नवाक्य 'लौका' का विश्लेषण किया तो प्रथमाक्षर 'लौ' में तृतीय वर्ग का 'ल' और चतुर्थ वर्ग का ‘औ' संयुक्त है तथा द्वितीय वर्ण 'का' में प्रथमवर्ग के 'क्' और आ दोनों ही वर्ग सम्मिलित हैं, अतः प्रश्न में प्रथम, और तृतीय और चतुर्थ वर्ग का संयोग है। उपयुक्त विश्लेषित वर्गों में अधिकांश वर्ण प्रथम और तृतीय वर्ण के है, अतः यह संयुक्त प्रश्न है। इसका फल परीक्षा में उत्तीर्णता प्राप्त करना है। प्रस्तुत ग्रन्थ में यह एक विशेषता है कि तृतीय वर्ग के वर्षों की भी संयुक्त संज्ञा बतायी गयी है। संयुक्त संज्ञक प्रश्न धन लाभ करानेवाले एवं स्त्री, पुत्रादि की प्राप्ति करानेवाले होते हैं। प्रश्नकुतूहलादि जिन ग्रन्थों में प्रश्नाक्षरों के मगण, यगणादि भेद किये हैं, उनके मतानुसार प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षर मगण, नगण, भगण और यगण इन चारों गणों से संयुक्त हों तो लाभ होता है। यदि मगण और नगण इन दोनों गणों से संयुक्त प्रश्नाक्षर हों तो दिन १. “प्रथमतृतीयाक्षरयोः संयुक्तेति स्वतो मिथश्चाख्याः । कग, चज, टड, तद, पब, यल, शस, कज, चग, टग, तग, पग, यग, शग, टल, तज, पज, यज, शज, कड, चड, तड, पड, यड, शड, कद, चद, टद, पद, तद, शद, यद, कब, चब, टब, तब , पब, यब, शब, कल, चल, टल, तल, पल, यल, शल, कस, चस, टस, तस, पस, यस इत्याधनन्तभेदाः भवन्ति।"-के. प्र. र., पृ. २७-२६ । चन्द्रो. श्लो. ३४-३७ । के. प्र. सं., पृ. ४ । नरपतिज., पृ. ११। २. संयुक्तादीनि-क. मू.। ३. चादिगादीनि-क. मू.। ४. प्र. कु., पृ. १२। केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि : ७३
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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