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________________ अर्थात् - सूर्योदय के पहले और अस्त होने के पीछे चन्द्रमा, नक्षत्र एवं उल्का आदि के गमन एवं पतन को देखकर शुभाशुभ फल का ज्ञान करना चाहिए। इस शास्त्र में दिव्य, अन्तरिक्ष और भौम इन तीनों प्रकार के उत्पातों का वर्णन भी विस्तार से किया है। फलित जैन ज्योतिषशास्त्र शक संवत् की ५वीं शताब्दी में अत्यन्त पल्लवित और पुष्पित था । इस काल में होनेवाले वराहमिहिर जैसे प्रसिद्ध गणक ने सिद्धसेन और देवस्वामी का स्मरण किया है तथा दो-चार योगों में मतभेद भी दिखलाया है। तथा इसी शताब्दी के कल्याणवर्मा ने कनकाचार्य का उल्लेख किया है। यह कनकाचार्य भी जैन गणक प्रतीत होते हैं। इन जैनाचार्यों के ग्रन्थों का पता अद्यावधि नहीं लग पाया है, पर इतना निस्सन्देह कहा जा सकता है कि ये जैन गणक ज्योतिषशास्त्र के महान् प्रवर्तकों में से थे । संहिताशास्त्र के रचयिताओं में वामदेव का नाम भी बड़े गौरव के साथ लिया गया है । यह वामदेव लोकशास्त्र के वेत्ता, गणितज्ञ एवं संहिताशास्त्र में धुरीण कहे गये हैं । इस प्रकार फलित जैन ज्योतिष विकासशील रहा है । जैन प्रश्नशास्त्र का मूलाधार प्रश्नशास्त्र फलित ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण अंग है । इसमें प्रश्नकर्ता के प्रश्नानुसार बिना जन्मकुण्डली के फल बताया जाता है। तात्कालिक फल बतलाने के लिए यह शास्त्र बड़े काम का है। जैन ज्योतिष के विभिन्न अंगों में यह एक अत्यन्त विकसित एवं विस्तृत अंग है । उपलब्ध दिगम्बर जैन ज्योतिष ग्रन्थों में प्रश्नग्रन्थों की ही बहुलता है । इस शास्त्र में जैनाचार्यों ने जितने सूक्ष्म फल का विवेचन किया है, उतना जैनेतर प्रश्न ग्रन्थों में नहीं है । प्रश्नकर्ता के प्रश्नानुसार प्रश्नों का उत्तर ज्योतिष में तीन प्रकार से दिया जाता है पहला- प्रश्नकाल को जानकर उसके अनुसार फल बतलाना । इस सिद्धान्त का मूलाधार समय का शुभाशुभत्व है- प्रश्न समयानुसार तात्कालिक प्रश्नकुण्डली बनाकर उससे ग्रहों के स्थान विशेष के द्वारा फल कहा जाता है । इस सिद्धान्त में मूलरूप से फलादेश सम्बन्धी समस्त कार्य समय पर ही अवलम्बित हैं। दूसरा - स्वरसम्बन्धी सिद्धान्त है। इसमें फल बतानेवाला अपने स्वर (श्वास) के आगमन और निर्गमन से इष्टानिष्ट फल का प्रतिपादन करता है । इस सिद्धान्त का मूलाधार प्रश्नकर्ता का अदृष्ट है; क्योंकि उसके अदृष्ट का प्रभाव तत्स्थानीय वातावरण पर पड़ता है । इसी से वायु प्रकम्पित होकर प्रश्नकर्ता के अदृष्टानुकूल बहने लगती है और चन्द्र एवं सूर्य स्वर के रूप में परिवर्तित हो जाती है । यह सिद्धान्त मनोविज्ञान के निकट नहीं है, केवल अनुमान पर ही आश्रित है । अतः इसे अति प्राचीन काल का अविकसित सिद्धान्त कह सकते हैं। तीसरा - प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षरों से फल बतलाना है। इस सिद्धान्त का मूलाधार मनोविज्ञान है, क्योंकि विभिन्न मानसिक परिस्थितियों के अनुसार प्रश्नकर्ता भिन्न-भिन्न प्रश्नाक्षरों का उच्चारण करते हैं । उच्चरित प्रश्नाक्षरों से मानसिक स्थिति का पता लगाकर प्रस्तावना : ३१
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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