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________________ योग-यह सूर्य और चन्द्रमा के योग से पैदा होता है। प्राचीन जैन ग्रन्थों में मुहूर्तादि के लिए इसको प्रधान अंग माना गया है। इनकी संख्या २७ बतायी है। व्यतिपात, परिघ और गण्ड इनका त्याग प्रत्येक शुभ कार्य में कहा गया है। योग के साधन का विधान बताते हुए लिखा है कि दैनिक स्पष्ट सूर्य एवं स्पष्ट चन्द्र के योग की कला बनाकर उनमें ८०० का भाग देने से लब्धिगत योग होता है। फिर गत और भोग्य कला को ६० से गुणाकर रवि-चन्द्र की गति कला योग से भाग देने पर गत और भोग्य घटियाँ आती हैं। करण-गत तिथि को २ से गुणा कर ७ का भाग देने से जो शेष रहे, उसी के हिसाब से करण होता है। जैनाचार्य श्रीधर ने भी 'ज्योतिर्ज्ञानविधि' में करणों का वर्णन. करते हुए निम्न प्रकार लिखा है वव-वालव-कौलवतैत्तिलगरजा वणिजविष्टिचरकरणाः। शकुनिचतुष्पदनागाः किंस्तुघ्नश्चेत्यमी स्थिराः करणाः॥ कृष्णचतुर्दश्यपराधतो भवन्ति स्थिराणि करणानि। शकुनिचतुष्पदनागाः किंस्तुघ्नः प्रतिपदापर्धे॥ अर्थात् वव, वालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि ये चर करण होते हैं एवं शकुनि, चतुष्पद, नाग और किंस्तुघ्न ये स्थिर करण होते हैं। कृष्ण चतुर्दशी में परार्ध से चर करण और शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के परार्ध से स्थिर करण होते हैं। यन्त्रराज के गणितानुसार भिन्न-भिन्न यन्त्रों से करणादिक का मान सूक्ष्म लाया गया है। जैन युग में ६० सौर मास, ६१ सावन मास, ६२ चान्द्रमास और ६७ नाक्षत्र मास होते हैं। १ नाक्षत्र वर्ष में ३२७ २८ दिन, १ चान्द्रवर्ष में ३५४ दिन, ११ घटी, ३६६ पल होते हैं। इसी प्रकार १ सौर वर्ष में ३६६ दिन और एक युग में सौर दिन १८००, चान्द्रदिन १८६०, नक्षत्रोदय १८३०, चान्द्रसावन दिन १७६८ बताये गये हैं। इन अंकों के साथ जैनेतर भारतीय ज्योतिष से तुलना करने पर चान्द्र वर्षमान और सौर वर्षमान में पर्याप्त अन्तर होता है। जैनाचार्यों ने यन्त्रों के द्वारा जिस सूक्ष्म पंचांग निर्माण सम्बन्धी गणित का प्रतिपादन किया है, वह प्रशंसनीय है। प्रत्यक्षवेधगत जो गणित मान आता है, वही मान जैनाचार्यों के यन्त्रों पर से सिद्ध होता है। इस पंचांगगणित में जैनाचार्यों ने देशान्तर, कालान्तर एवं अक्षांश सम्बन्धी संस्कार १. 'विष्कम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्यं शोभनं तथा। अतिगण्डः सुकर्मा च धृतिः शूलं तथैव च ॥ गण्डो वृद्धिधुवश्चैव व्याघाती हर्षणस्तथा। वज्रः सिद्धिर्व्यतीपातो वरीयान् परिघः शिवः ॥ सिद्धः साध्यः शुभः शुक्लो ब्रह्मेन्द्रो वैधृतिस्तथा। स्युः सप्तविंशतिर्योगाः शास्त्रे ज्योतिष्कनामनि॥" जैन ज्योतिर्ज्ञानविधि; पत्र ३ २. यन्त्रराज गणित ग्रन्थ का यन्त्रप्रकरण। २४ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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