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गगनखण्डात्मक गति को भी कलात्मक गति के रूप में स्वीकार कर लिया गया। इस प्रकार प्राचीन जैन पंचांग की प्रणाली विकसित होकर नये रूप में आ गयी। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण इन पाँचों का नाम ही पंचांग है। जैन पंचांगगणित में मेरु को केन्द्र मानकर ग्रहों का गमन होने से अनेक विशेषताएँ हैं।
तिथि -सूर्य और चन्द्रमा के अन्तरांशों से तिथि बनती है और इसका मान १२ अंशों के बराबर होता है। सूर्य की गति प्रतिदिन लगभग १ अंश और चन्द्रमा की १३- अंश है, पर सूर्य और चन्द्रमा अपनी गति से गमन करते हुए ३० दिनों में ३६० अंशों से अन्तरित होते हैं। अतः मध्यम मान से तिथि का मान १२ अंश अर्थात् ६० घटी अथवा ३० मुहूर्त है। कभी-कभी सूर्य की गति मन्द और कभी-कभी तेज हो जाती है। इसी प्रकार चन्द्रमा भी कभी शीघ्रगति और कभी मन्दगति होता है। इसलिए तिथिक्षय और तिथिवृद्धि होती है। साधारणतः मध्यम मान के हिसाब से तिथि ६० घटी है, पर कभी-कभी ६५ घटी तक हो जाती है। तिथि का उदय सर्वदा सूर्योदय से ही लिया जाता है। तिथिक्षय और वृद्धि के कारण ही कभी पक्ष १६ दिन और कभी १४ दिन का ही होता है।
वार-नाक्षत्रमान के हिसाब से जैन पंचांग में वार लिया जाता है। वारों का क्रम ग्रहों के अनुसार न होकर उनके स्वामियों के अनुसार है। जिस दिन का स्वामी सूर्य होता है, उसे रविवार; जिस दिन का स्वामी चन्द्र होता है, उसे सोमवार; जिस दिन का स्वामी भौम होता है, उसे मंगलवार; जिस दिन का स्वामी बुध होता है, उसे बुधवार; जिस दिन का स्वामी गुरु होता है, उसे बृहस्पतिवार; जिस दिन का स्वामी भृगु होता है, उसे शुक्रवार; एवं जिस दिन का स्वामी शनैश्चर होता है, उसे शनिवार कहते हैं। इस वार नाम में वृद्धिह्रास नहीं होता है; क्योंकि सूर्योदय से लेकर पुनः सूर्योदय तक के काल का नाम वार है।
नक्षत्र-सूर्य जिस मार्ग से भ्रमण करता है, उसे क्रान्तिवृत्त या मेरुछिन्नसमानान्तरप्रोतवृत्त कहते हैं। क्रान्तिवृत्त की दोनों तरफ १८० अंश में जो कटिबन्ध-प्रदेश है, उसे राशि चक्र कहते हैं। इस राशिचक्र के २८ भाग करने पर अभिजित् आदि २८ नक्षत्र होते हैं। प्रत्येक ग्रह का नक्षत्रमान भिन्न-भिन्न होता है, किन्तु पंचांग के लिए चन्द्र नक्षत्र ही लिया जाता है। इसी को दैनिक नक्षत्र भी कहते हैं। चन्द्र नक्षत्र के लाने का प्रकार यह है कि स्पष्ट चन्द्र की कला बनाकर उनमें ८०० का भाग देने से लब्धिगत नक्षत्र, शेष वर्तमान नक्षत्र की गतकलाएँ आती हैं। उनको ८०० में से घटाने से भोग्य कलाएँ होती हैं। गत
और भोग्य कलाओं को ६० से गुणा कर चन्द्रगति कला का भाग देने से गत और भोग्य घटी आती है। जैन सारणी ग्रन्थों के अनुसार अहर्गण बनाकर सारणी पर केन्द्रवल्ली, फलवल्ली, शीघ्रोच्चवल्ली एवं नक्षत्रवल्ली आदि पर से फल लाकर नक्षत्र का साधन करना चाहिए। जैन ग्रन्थ तिथिसारणी के अनुसार तिथिफल एवं तिथिकेन्द्रादि लाकर नक्षत्र मान और तिथिमान सिद्ध किया गया है।
१. विशेष जानने के लिए देखें, “जैनपंचांग" शीर्षक लेख-जैन सिद्धान्त भास्कर, भाग ८, कि. २
प्रस्तावना : २३