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________________ (३) आयत क्षेत्र को वर्ग क्षेत्र में एवं वर्ग क्षेत्र को आयत क्षेत्र के रूप में बदला जा सकता है। (४) चतुर्भुज क्षेत्र में चारों भुजाओं को जोड़कर आधा करने पर जो अवशेष रहे, उसमें-से पृथक्-पृथक् चारों भुजाओं को घटाने पर जो-जो बचे, उन्हें तथा पहले आधी की गयी राशि को गुणा करके गुणनफल का वर्गमूल निकालने पर विषमबाहु चतुर्भुज का फल आता है। (५) दो वर्गों के योग अथवा अन्तर के समान वर्ग बनाने की प्रक्रिया। (६) विषमकोण चतुर्भुज के कर्णानयन की विधि तथा लम्ब, लघ्वाबाधा एवं बृहदाबाधा आदि का विधान। . (७) त्रिभुज, विषमकोण, समचतुर्भुज, आयतक्षेत्र, वर्गक्षेत्र, पंचभुजक्षेत्र, षड्भुजक्षेत्र, ऋजुभुजक्षेत्र, एवं बहुभुज क्षेत्र आदि के क्षेत्रफलों का विधान। (८) वृत्तक्षेत्र, जीवा, वृत्तखण्ड की ज्या, वृत्तखण्ड की चाप एवं वृतफल आदि निकालने का विधान। (६) सूचीक्षेत्र, सूचीव्यास, सूचीफल एवं सूची के सम्बन्ध में विविध परामर्श आदि का विधान। (१०) शंकु और वर्तुल के घनफलों का विधान; इत्यादि। जैनाचार्यों ने रेखागणित से ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों को निश्चित करते हुए लिखा है कि क्रान्तिवृत्त और विषुव रेखा के मिलने से जो कोण होता है, वह २३- अंश परिमित है। यहाँ से सूर्य उत्तरायण पथ से ६६- अंश तक दूर चला जाता है। इसी प्रकार दक्षिणायन पक्ष में भी ६६ अंश तक गमन करता है। अतएव खगोलस्थ उत्तर केन्द्र से सूर्य की गति ११३८ अंश दूर तक हुआ करती है। जैन मान्यता में जिन वृत्तों की कल्पना खगोलस्थ दोनों केन्द्रों के मध्य की गयी है, उन्हें होराचक्र और प्रथम होराचक्र से ज्योतिर्मण्डल के पूर्व भाग के दूरत्व को विक्षेप बताया है। इस प्रकार विक्षेपाग्र को केन्द्र मानकर ग्राहक या छादक के व्यासार्ध के समान त्रिज्या से बना हुआ वृत्त जहाँ छाद्य बिम्ब को काटता है, उतना ही ग्रहण का परम ग्रास भाग होता है। इसी प्रकार चन्द्रशर द्वारा विमण्डलीय, ध्रुवप्रोत वृत्तीय एवं क्रान्तिवृत्तीय शरों का आनयन प्रधान रूप से किया है। रेखागणित के प्रवर्तक यतिवृषभ, श्रीधर, श्रीपति, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, पद्मप्रभसूरि, देवेन्द्रसूरि, राजकुंजर, महावीराचार्य, सर्वनन्दी, उदयप्रभसूरि एवं हर्षकीर्तिसूरि आदि प्रधान जैन गणक हैं। जैन बीजगणित-इसमें प्रधान रूप से एक वर्ण समीकरण, अनेक वर्ण समीकरण, करणी, कल्पितराशियाँ समानान्तर, गुणोत्तर, व्युत्क्रम, समानान्तर श्रेणियाँ, क्रमसंचय, घातांकों और लघुगणकों का सिद्धान्त आदि बीज सम्बन्धी प्रक्रियाएँ मिलती हैं। 'धवला' में अ १. भुजयुत्यर्धचतुष्काद् भुजहीनाद्घातितात्पदं सूक्ष्मम् । __ अथवा मुखतयुतितलमवलम्बगुणं न विषमचतुरस्रे ॥ २० : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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