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नवकार महामंत्र/86
_काया से लगे हुए अतिचारो का काया के शुभ योग से ,वचन से लगे अतिचारों का वचन के शुभ योग से, एवं मन से लगे अतिचारों का मन के शुभ योग से ,प्रतिक्रमण करता हूँ। पाप कर्मों से पीछे हटता हूँ। सब प्रकार के व्रतों के अतिचार से पीछे हटता हूँ। समदिट्ठजीवों, जई विहु पांव समायरे किंचि।
अप्पोसि होई बंधों, जेण न निद्धं कुणई।। सम्यग् दृष्टि जीव अपने जीवन यापन के लिए यद्यपि पाप बंधन करता है। तथापि उदासीन परिणाम होने से उसको कर्म का बंधन अल्प होता है क्योंकि वह निर्दय भाव से अति पाप व्यापार नहीं करता।
एवं अटठविंह कम्म, रागदोससमज्जि। ___आलो अंतो अनिदंतो खिप्पंहणइ सुसावओ।।
जिस प्रकार कुशल वैद्य एवं गारूडिक मंत्र वनस्पतियों एवं मंत्र प्रभाव से विष को नष्ट कर देते है, 'उसी प्रकार राग-द्वेष वश बांधे हुए आठ कर्मों' की आत्मालोचना कर,गुरु के समक्ष उसकी निंदा कर, स्वयं प्रायश्चित कर सुश्रावक उन्हें जड़मूल से नष्ट कर सकता है। ___निश्चय नय से जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता तब तक वीर्याचार से हर पर्याय- व्यवहार को शुद्ध बनाता हुआ उत्तमोत्तम भावों में रमता, दुर्गम राहों को सरलता से तय करता हुआ, भवोभव में अधिक सामर्थ्यवान, पुण्यकर्म संचित करता हुआ, पुण्यानुबंधी पुण्य बाँधता हुआ, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गुण श्रेणी तय करता हुआ, मुक्ति के उत्तुंग शिखर का आरोहण करता है। राह संयम है। नंदीशेण अजितशांति में प्रार्थना करते हैं। 'ममय दिसउ संज में नंदि।" मुझे संयम में समृद्धि प्रदान करें।
सारांश में यह महामंत्र जहाँ सर्वोत्तम शरण प्रदान करता है, शरणागत हो जाने का संदेश है, वहाँ आत्मसाधना, अहिंसा, संयम