________________
नवकार महामंत्र / 84
जगत एवं जीव के प्रति सत्य भावना से प्रेरित हो, कि जगत अधुवम है, अनित्य अशरण है, अशुचि है। एकत्व है यानी प्रत्येक जीव अपने अपने कर्म भोगता है । अन्यत्व है, यानी जीव का लक्ष्य पुद्गलों से अन्य, आत्म रूप है, जो शरीर से भिन्न है। जीव का लक्ष्य चक्राकार चौरासी लाख योनियों में भवभ्रमण नहीं, शिखर की ओर सिद्धशिला के अग्रभाग की ओर अग्रसर होना है। आश्रवों के द्वारों में न भटक कर पानी में कम्बल की तरह भारी होकर डूबना नहीं, वरन् लाघव से कर्म निर्जरा करता हुआ हल्का रहे। ऐसा बोध दुर्लभ है उसी से मोक्ष का वरण होगा। इस हेतु साधु दस धर्म पालते हैं। साधु उत्तम क्षमावान, मार्दव, यानी मद रहित होगा । आर्जव युक्त यानी निष्कपट, निर्मल स्वभाव वाला, सरल होगा। सत्य आचरण वाला होगा। शोच यानी त्याग करेगा। संयमों 'खलु' (सही) धर्म मानेगा। तप और त्याग पूर्वक अकिंचन यानी निर्ग्रन्थ बन विहार करेगा तथा ब्रह्मचर्य यानी ब्रह्म में तल्लीन होगा । आदर्श तो आकाश के समान हैं, लेकिन लाभ भी अनन्त हैं। उसके लिए उतनी ही प्रभावना भी जरूरी है।
22. ऐसो पंच नमुक्कारों, सव्व पावप्पणासणों, मंगलाणंच सव्वेसिं, पढमं हवई मंगलम् ।
जैन दर्शन एवं शाकाहार, मद्यनिषेध जैसे पर्याय हो गये हैं, उसी तरह जैन कहलाने वाले जैनियों को नवकार महामंत्र उनकी सर्वप्रमुख पहचान हो गई है। ऐसे पांच परमेष्टियों को किया गया नमस्कार महामंत्र 108 गुणों को साधक के मन में प्रतिष्ठा करता है । जो अरिहंत के बारह, सिद्ध के आठ, आचार्य के छत्तीस, उपाध्याय के पच्चीस एवं साधु के 27 गुण विशिष्ट हैं।
23. इस महामंत्र की साधना युगों से जनसाधारण तथा योगियों ने परम भावना पूर्वक की है। अतः एक एक अक्षर परम शक्ति सम्पन्न है। चार्जर्ड है। अंतरिक्ष में इसकी गुणकारी शक्ति विद्यमान एवं प्रखर है। धर्मध्यान शुक्लध्यान, काउसग्ग द्वारा हम इस शक्ति पुंज से जुड़ जाते हैं ।