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________________ 83/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार (4) तपाचार हेतु बारसहिम्मि वि तवे, सब्मिंतर बाहिरे कुसलदिढे, अगिलाई (ग्लानिरहित), अणाजीवी (आजीविका के लिए नहीं), नायव्वों सो तवायारो। जिनेश्वर ने छः बाह्य तप एवं छ: अभ्यन्तर तप कहे हैं जोअनशन, उनोदरी, रस-त्याग, वृतिसंक्षेप, कायाक्लेश एवं प्रतिसंलीनता तप हैं तथा अभ्यन्तर तप में प्रायश्चित, विनय, वेयावच्च (सेवा), स्वाध्याय,ध्यान एवं व्युत्सर्ग हैं । ऐसा तप ग्लानि क्षोभ रहित प्रसन्नता से करे, आजीविका हेतु नही। ऐसा माने। (5) वीर्याचारअणिगुहिय, बलवीरिओ, परक्कमई जो जहुत्तमाहुत्तो, जुजई अ जहाथाम, नायव्वो विरियायारो। -(अतिचारं गाथा सूत्र) जो अपने बल वीर्य यानी सामर्थ्य को छिपाये बिना, सावधान, उद्यमशील होकर, सूत्रों, शास्त्रों की आज्ञानुसार प्रवतन में पराक्रम दिखाता है, प्रवृत्ति करता है, वह वीर्याचार है। 21. इसी प्रकार साधु बाईस परीषह सहन कर , शारीरिक कायाकष्ट सह कर , इतना सुदृढ़ हो जाए कि उसका शरीर आत्म-उन्नति के लिए ये कष्ट बाधास्वरूप न समझे। आकुल-व्याकुल न हो। उनके प्रति बेखबर हो जाए। बारह भावना से प्रेरित हो। वे आत्मरमण हेतु ही शुद्ध उचित आहार लेते हैं। याचक या दास भावना से आहार नहीं लेते हों। आगम में निर्धारित मर्यादा के अनुकूल हों। जो साधु के निमित्त आहार न हो तथा गृहस्थ को कोई भौतिक लाभ आदि पहुँचा कर या लाभ दिखा कर या उसके लोभवश गृहस्थ द्वारा दिया गया आहर ग्रहण न करे। जैसे गाय थोड़ा थोड़ा चर लेती है, उसी प्रकार साधु भिन्न-भिन्न घरों से गोचरी लेते हैं।
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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