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________________ नवकार महामंत्र/70 मिथ्यात्व रूपी मोहनीय कर्म इस संसार रूपी अंधकारमय अटवी में हमें भटकाता है। जिन वीतराग प्रभु ने अपने उपदेश से राह प्रशस्त की है, उन अरिहंतो को दण्डवत प्रणाम करता हूँ। जो भव बीजों को नष्ट करने वाले हैं, उन्हें नमस्कार किया है। . भवबीजांकुरजननाःरागाद्याः क्षयमुपागता यस्य। . ब्रह्मा व विष्णुर्वा, हरिर्जिनों वा नमस्तस्मै। -(आचार्य हेमचन्द्रसूरी कृत) 8. 'नमो अरिहंतांणं' से श्रावक के छ: आवश्यक कर्तव्य पूरे होते हैं-जैसे सामयिक होती है, चतुर्विशांति स्तवन होता है, गुरुवन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान, वर्तमान के लिये संवर, भविष्य के लिए प्रत्याख्यान, यानी व्रत, पापकर्म से निवृति हेतु | 'नमो अरिहंताणं' देवगुरु का वंदन है। इसके साथ सामयिक करने से समता की वृद्धि होती है। कलह क्लेश मिटते हैं। सम भावों द्वारा प्रतिक्रमण यानी पापकर्म से पीछे हटने की प्रेरणा मिलती है। इसका ध्यान करने से कायोत्सर्ग एवं आत्मशुद्धि होती है। काया से मन हट कर जीव आत्मा की ओर उर्ध्वगामी बनता है। जीव के लक्षण है'समता, रमता, उरधता (उर्वीकरण), ग्याकता, सुखभास। . वेदकता, चेतन्यता ये सब जीव विलास।। धर्म या आत्मा के दस लक्षण निम्न भी कहे हैं-खति , मुत्ती, अज्जव, मद्दव, लाघव संजे, तवे चेइयं, बंभचेरे। अर्थात् क्षमा निर्लोभिता, सरलता, मृदुता, सत्य, संयम , तप, ज्ञान एवं ब्रह्माचर्य। पल-पल आर्त एवं रोद्र ध्यान दूर होकर जीव के धर्म ध्यान (पापमुक्ति की कला का विकास) एवं शुक्लध्यान से आत्मा की अक्षुण्णता उसकी विरलता, सर्वज्ञता प्राप्त हो, शक्ति उद्भाषित होती है। अजीव के लक्षण हैं -
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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