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________________ 71 / जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार 'तनसा, मनसा, वचनता (पुदगल के लक्षण है ।) जड़ता, जड़ सम्मेल । लघुता, गुरुता, गमनता ये अजीव के खेल ।। - (समयासार बनारसीदास) इस मंत्र से भव प्रपंच कम होता है। भेद ज्ञान प्रकट होता है । तन, मन के प्रति चंचलता, दुष्टवचन, कलह, जड़ पदार्थों की आसक्ति, कम होकर, चेतन शिवरूप से स्नेह बढ़ता है । अनुभव चिन्तामणि रतन, जाके हिय परगास सो पुनीत शिवपद लहै, दहै चतुर्गतिवास । ताते विषै भोग में मगन सौ मिथ्यात्वीजीव भोग सौ उदास, सो समकिती अभंग है । - ( समयसार बनारसीदास) 9. ऐसे सम्यकत्ववान को धर्म में संशय न होगा, शुभ कर्म फल की भी इच्छा न होगी । अशुभ कर्म उदय देखकर चित्त में ग्लानि नहीं होगी। सत्य पर दृष्टि होगी । सत्य को जानने एवं उसे पालन करने का पूरा प्रयास होगा। मिथ्यात्व का लेश मात्र भी आग्रह न होगा | आनन्दधन की तरह अपने स्वरूप में चित्तस्थिर एवं सतत् प्रफुल्लित होगा। शास्त्रों में भी कहा है - 'निःशंकिय, निकंखिय, निवितिगिच्छा, अमूढदिट्ठिय । उववूह थिरकरणें, वच्छल, पभावणे अट्ठ । । - ( अतचार गाथा सूत्र 3 गाथा ) मिथ्यात्व की, अहं बुद्धि की भूल मिटेगी कि मेरे किये दूसरों को नुकसान होगा या भला होगा ऐसे अभिमान भरे वचन नहीं कहेगा। अपने भवों एवं अपनी देह को देखो, विपश्यना करो। जिस स्वदेह एवं परदेह पर हम मुग्ध हैं, उसकी स्थिति देखो, “ऊपर की चमक दमक पट् भूषण की, धोखे लगी भली, जैसे कली है कणेर
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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