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मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से महान होता है/204
07. सुत्तनिपात में एक जगह कहा गया है । क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, चण्डाल पुक्कस सभी समान हैं यदि उन्होंने धर्माचरण किया है। इस प्रकार पूर्व विवेचन के आधार पर यह सुस्पष्ट एवं प्रमाणित है कि जैन दर्शन व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जाति-पांति आदि कारणों से भेदभाव अनुचित, समझता है। 'मनुष्य अतः जन्म से नहीं कर्म से महान बनता है। ____08. फिर भी इसका यह कदापि अर्थ नहीं कि चौरासी लाख योनियों में मनुष्य भव की विशेषता नहीं । वह तो है ही जिसके लिए देवता भी तरसते हैं।
मनुवगदूर वित्तओ विणुव गइए महव्यय सयलं मनुव गद्दीए ज्झाणं, मणुव गद्दीए णिव्वाणं।
(द्वादशांग अनुप्रेक्षा , 2991) मनुष्य योनि में ही तप, महाव्रत, शील, ध्यान, निर्वाण, सम्भव है। इन्द्रिय निग्रह, उत्तम दस-धर्म, बारह भावनाएं, पंच महाव्रत अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि एवं अष्ट-प्रवचन-माताओं के अनुसरण से, यानी सावध कर्मों एवं कषायों से बचकर मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है-बिना जाति-पांति के भेदभाव के हर आत्मा इस पराक्रम के लिए स्वाधीन है। ___09. इस महान दर्शन के उपरान्त भी वास्तविकताओं को ओझल नहीं किया जा सकता है। जन-मानस में जैन धर्म भी अन्य की तरह एक सम्प्रदाय मात्र है तथा उनके भीतर के फिरकों से मूर्तिपूजक में त्रिस्तुतिक, चतुर्तुतिक, दिगम्बर तथा अन्य में स्थानकवासी, तेरहपंथी आदि आदि अनेक पंथ हैं। जिनमें वास्तविक अन्तर नाम मात्र है। उन सब में मूलभूत समता होते हुए भी एकता की जगह संकीर्णता, असहिष्णुता अधिक दृष्टिगोचर होती है। आत्म-प्रशंसा एवं प्रचार की भूख बढ़ रही है। जैसा दैनिक अखबारों में अपने फोटो तथा प्रचार पूर्ण विज्ञापनों से प्रतीत होता है। कुछ मंदिर-मार्गी साधुओं में द्रव्य रखने-रखवाने में मुनि