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203/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार निग्रह कर उत्तम जैन मुनि बने। उन्होंने ब्राह्मणों की यज्ञशाला में विजयघोष को यज्ञ एवं ब्राह्मण का सही स्वरूप बताया
"नवि मुण्डि एण समणो न ओंकारेण बम्मणों, न मुणि रणावासिंग कुसची रेण न तावसो, समाए, समणोहोई-बंभचेरंण बम्मणों।
(उ. सू 25/31)। मुण्डन करने से कोई साधु नहीं बन जाता। 'ओम-ओम' का उच्चारण करने से कोई ब्राह्मण नहीं बनता। न अरण्य वास से मुनि बनता है अथवा कुशवस्त्र पहनने से तापस बनता है। समता भाव से ही श्रमण एवं ब्रह्ममचर्या से ब्राह्मण बनता है।
05. इस प्रकार गौतम गणधर जाति से ब्राह्मण थे लेकिन प्रभु महावीर के प्रिय गणधरों में एक थे। जैन आगम अधिकतर गणधरों की जिज्ञासाओं से एवं तीर्थंकरों के उपदेशों से परिपूर्ण है। उन्होंने सभी साधकों एवं सामान्य जनता को लक्ष्य कर प्रश्न किये जिनका समाधान प्रभु द्वारा किया गया। जो गौतम आगे जाकर स्वयं 'श्रुत-केवली' हुए। इसी उत्तराध्ययन सूत्र में श्रमण धर्म की आत्मिक मर्यादाएँ-क्षात्र धर्म की बाह्य मर्यादाओं के अनुरूप मानी
____06. जो सहस्सं सहस्साणं संगामें दुज्जएजिणे एगं जिणेज्ज अप्पाणं एससे परमोजओ।
(उ. सू. 9/41) जो योद्धा दुर्जय संग्राम में सहस्त्रों-सहस्त्रों शत्रुओं को जीतता है उसकी अपेक्षा जो केवल अपनी आत्मा को जीतता है उसकी विजय, श्रेष्ठ है। इसलिए श्रद्धा को नगर, क्षमा को बुर्ज एवं खाई, संयम को नगर-द्वार की अर्गला, पराक्रम या पुरूषार्थ को धनुष, ईया-समिति को उसकी डोर जिसे सत्य से बांध कर महाव्रतों के बाणों से कर्मकवच को भेदकर, व्यक्ति स्वयं पर विजय पाता है- संसार से मुक्त होता है।