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________________ 205/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार के लिए सहज संकोच की सीमा लांघी जाना प्रतीत होती है। यहाँ तक कि प्रतिष्ठा या तप-उत्सव आदि कराने में श्रीसंघ के साथ आय में भागीदारी मांगी जाने की भी काफी हेय रही, विश्वसनीय चर्चा होती रही है। वीतराग धर्म एवं मुक्ति पथ के साधुओं के नाम तो उत्तराध्ययन एवं आचारंग में निर्धारित मर्यादाओं से ही समुज्जवल होगा। परिग्रह पाप है उसे छोड़ने के लिए ही वे विरत बने हैं। 10. इसी प्रकार श्रावकों में भी जैनत्व के संस्कार क्षीण हो रहे हैं। स्वास्थ्य, आत्मदर्शन, सुसाहित्य, आगम, वाचन, श्रवण, मनन में आम श्रावक की अभिरूचि विकसित नहीं है। भोग-प्रधान सभ्यता की चकाचौंध में पश्चिम के विचारों के चिथड़े, अपनाने में शोभा समझी जा रही है, इसलिए जहाँ पश्चिम में दारू-मांस भक्षण को छोड़ना, सभ्यता का चिन्ह माना जाता है वहां उनकी इन पुरानी आदतों को हमारे मुख्यतः कुछ भ्रमित युवकों, द्वारा अपनाना गौरव पूर्ण समझा जाता है। “To be vegetarian is to be civilized” – H.G. Wells. "शाकाहारी बनना सभ्य बनना है।"- एच.जी. वैल्स। • "If I were an ommipotent despot, I would have arranged such a state of affairs with my subjects, as to ban use of fish, fowl meat, intoxicants, from the face of earth.” George Bernard Shaw. .."यदि मैं सार्वभोम शक्ति सम्पन्न शासक होता, तो मेरी प्रजा में ऐसी व्यवस्था करता कि पृथ्वी से मच्छी, मुर्गे, मांस, मादक, द्रव्यों के उपयोग का सर्वथा निषेध करता।"- जोर्ज बनार्डशाह। ___ अपरिमित परिग्रह करने में पाप है, कषायपूर्ण आचरण है। निकाचित कर्म बन्धन है, परन्तु जैन धर्मावलम्बी भी परिग्रह में आमतौर पर किसी अन्य जातियों से कम प्रतीत नहीं होते। मानो जैनत्व का उन पर कुछ भी असर नहीं। व्यक्ति सारी उम्र, धन
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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