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________________ जैनों का संक्षिप्त इतिहास / 14 बराबर अर्द्ध चक्रों में विभाजन किया गया है। जिनमें प्रत्येक में छः छः (कीलें) आरे हैं। जैसे अवसर्पिणी में (1) सुषमा - सुषमा, (2) सुषमा, (3) सुषमा - दुषमा, (4) दुषमा - सुषमा, (5) दुषमा, (6) दुषमा - दुषमा है। प्रथम तीन आरों में लगभग 9 करोड़ - करोड़ सागरोपम वर्ष समाप्त हो जाते हैं। सागरोपम से तात्पर्य जिसकी संख्या में गिनती संभव नहीं है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तीसरे आरे में हुए एवं उनका निर्वाण तीसरे आरे की समाप्ति के 3 वर्ष 8.5 माह पूर्व हुआ । शेष सभी तीर्थंकर चौथे आरे में हुए। हम अभी पाँचवे आरे में जी रहे हैं क्योंकि महावीर का निर्वाण पाँचवे आरे के प्रारम्भ से 3 वर्ष 8.5 माह पूर्व हुआ । 22 वे तीर्थंकर श्री अरिष्ट नेमी महावीर के निर्वाण से 84 हजार वर्ष पूर्व हुए तथा 21 वे तीर्थंकर उनसे पांच लाख वर्ष पूर्व हुए क्योंकि प्रथम आरा 4 करोड़ - करोड़ सागरोपम वर्ष, द्वितीय तीन करोड़ - करोड़ व तृतीय दो करोड़ - करोड़ एवं चतुर्थ एक करोड़ सागरोपम वर्ष में 42 हजार साधारण वर्ष कम लम्बा युग था । पाँचवा आरा 21000 साधारण वर्ष तथा छठा 21000 साधारण वर्ष का है। यही क्रमवार उत्सर्पिणी काल का रहता है। उक्त तीर्थंकरों आदि महामानवों का वर्णन श्वेताम्बरों और दिगम्बरों दोनों के कई ग्रंथों में किया गया है । इनमें सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ आचार्य हेमचन्द द्वारा रचित "त्रिसृष्टि शलाका पुरुष चरित्र" है जिसमें 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवृति, 9 बलदेव, 9 वासुदेव एवं 9 प्रतिवासुदेवों का वर्णन है। बलदेव उनके भ्राता वासुदेव कृष्ण तीर्थंकर नेमिनाथ के समय में हुए । प्रथम तीर्थंकर ऋषभेदव का वर्णन "विष्णुपुराण" व "भगवत पुराण" में मिलता है। उनके पुत्र भरत के नाम पर भारत वर्ष कहलाया । उसके पूर्व यह हिमवर्ष कहलाता था। अन्य किसी तीर्थंकर का हिन्दु ग्रंथों में उल्लेख नहीं है। जैन - मत वैदिक-मत से बिल्कुल भिन्न है। ऋग्वेद में न पुनर्जन्म है, न कर्म सिद्धान्त है न निर्वाण है । वेदों में पशुओं की
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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