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15/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार बलि देना, देवताओं को प्रसन्न करने के लिये तथा मृत्यु के बाद स्वर्ग दिलाने हेतु बताया गया है। सौमरस पान से सभी इच्छित वस्तुएँ यहीं प्राप्त होना बताया गया है। इस हेतु पुरोहित सही मंत्रोच्चारण कर उचित माध्यम बनते थे। जैनों में न मंत्र है, न पुरोहित, न पशुबलि, न सोमरस। जैनों के महान तीर्थंकर क्षत्रिय थे जबकि उनके पुरोहित ब्राह्मण। इसी प्रकार ध्यान (योगशास्त्र), परमाणु सिद्धान्त (वैशेषिक). पदार्थ की अविनाशिकता (सांख्य-दर्शन), वैदिक-दर्शन से परे है, जिनका जैन दर्शन में समावेश है। इन अवैदिक प्रणालियों के प्रणेता कपिल, कणाद आदि भी 'तीर्थंकर' कहलाते थे। 24 वे तीर्थंकर महावीर ने 30 वर्ष की आयु में पंचमुष्ठि लोच कर दीक्षा अंगीकार की। साढे बारह वर्ष के घोर तप के उपरान्त उन्हे कैवल्य ज्ञान हुआ। तपस्या काल में उन्होंने केवल 350 दिन भोजन किया, 4166 दिन निर्जल उपवास रखे। उनका सर्वाधिक लम्बा उपवास 6 माह में 5 दिन कम का था। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व अनेकांत तथा स्याद्वाद के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। '
इन्द्र द्वारा ब्राह्मणी देवनंदा के कुक्षी से भ्रूण हटाकर माता त्रिशला के गर्भ से वर्द्धमान के जन्म लेने की जानकारी स्वयं महावीर ने गौतम के प्रश्न पर दी क्योंकि जब ब्राह्मण ऋषभदत्त एवं देवनन्दा उनके दर्शनार्थ आए तब देवनन्दा के स्तन से दूध बहने लगा। उसकी चोली खिंचने लगी शरीर की रोमावली के रोम , हर्षतिरेक से खड़े हो गये जैसे वर्षा के बाद कदम्ब का वृक्ष खिल उठता है। वह एकटक भगवान महावीर को देखने लगी। "ऐसा क्यों हुआ?" इस पर महावीर ने बताया यह ब्राह्मण स्त्री देवनंदा, मेरी माँ है जो मुझे वात्सल्य भाव से देख रही है। क्योंकि मेरी प्रथम उत्पत्ति उससे ही हुई थी। इसका वर्णन भगवती सूत्र (आगम) में उपरोक्त प्रकार से है। _महावीर ने 30 वर्ष की उम्र में संसार त्यागने पर पंचमुष्टि लोच करते हुए व्रत लिया कि मैं अब से कोई सावध कर्म नहीं