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परम कृपालु देव श्रीमद् राजचन्द्र के उद्गार/130 तृष्णा जैसे बने, कम करनी चाहिये। सत्य बोलने में थोड़े समय प्रारम्भ में नुकसान, प्रथमतः कदाचित हो सकता है, परन्तु पीछे से अनंतगुणों की धारक-आत्मा जो लूटी जा रही है वह लुटती हुई बन्द हो जाती है। सत्य बोलना, धीरे-धीरे सहज हो जाता है। आत्म इच्छा वाला जीव, पैसे को नाक के मैल की तरह त्याग देता है।
कहने में ऐसा आता है कि इस काल में इस क्षेत्र में तेरहवाँ गुणस्थान (संयोगि केवल्य) प्राप्त नहीं होता। परन्तु कहने वाले पहले गुणस्थान, मिथ्यात्व से निकलकर चौथे (सम्यक् दर्शन) तक आवें और वहाँ पुरूषार्थ करके देश विरति, सर्व विरति एवं अप्रमत्त गुण स्थान तक पहुँच जावे तो भी एक बड़ी से बड़ी बात होगी। समदर्शी:_काँच और हीरे को एक समझना, सत्श्रुत, असत्श्रुत, सद्गुरु एवं असदगुरु दोनों को समान समझना इत्यादि समदर्शिता नहीं। वह तो विवेकशून्यता एवं आत्म मूढता है। समदर्शी सत् को सत् एवं असत् को असत् समझता है। जो जैसा है उसे वैसा ही जानता, मानता है, उसका प्ररूपण करता है, उसमें इष्टानिष्ट बुद्धि नहीं रखता। उसे समदर्शी समझना चाहिए।
उत्तराध्ययनसूत्र में भगवान ने कहा है- उन्माद, आलस्य, कषाय, ये प्रमाद के लक्षण हैं। मनुष्य की आयुकुश के नोक पर पड़ी जल बिन्दु के समान है। अतः एक क्षण भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। यह अमूल्य है। यह क्षण चक्रवर्ती भी अधिक नहीं पा . सकता। प्रमाद :
"पंडिसिद्धाणं करणें, किच्चाणमकरणे"- निषिद्ध वस्तु या कार्य करने, एवं करने योग्य कार्य न करने का नाम प्रमाद है। निग्रंथ प्रवचनानुसार “पंचम काल में दोषयुक्त एवं पापिष्ठ गुरु पूजनीय ... होंगें। जैसा लूटा जावेगा वैसा प्रजा को लूटेंगे। राज्याधिकारी