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________________ परम कृपालु देव श्रीमद् राजचन्द्र के उद्गार/128 केवल आँख ही स्थिर होती हैं। श्रीमद् के अन्य कुछ महत्वपूर्ण निम्न उद्गार हैं। कर्मप्रभाव__अपने शुभाशुभ कर्म बन्धन से भव-भ्रमण करना पड़ता है। भोगे बिना धनधाति कर्मों से छुटकारा नहीं है। समस्त. जगत चक्रवर्ती-पर्यन्त, अशरण है। अनिच्छा से जो भी भोगना पड़े, वह पूर्व कर्म के सम्बन्ध को यथार्थ सिद्ध करता है। अनाथी मुनि की यौवन में आँख चली गई। कितने लोग अकाल मृत्यु, असाधारण रोग, बाढ, भूकम्प के शिकार हो जाते हैं। सनत्कुमार चक्रवर्ती थे। स्नान करते हुए उसके अनुपम रूप को देखकर देवताओं ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। उसने भी गर्वीले स्वर में कहा, "मैं सुसज्जित वेशभूषा में मुकुट पहिन राज-सिंहासन पर बैलूं तब देखना"। देवताओ ने तब भी देखा लेकिन तब वह विवर्ण था। वह रूप नहीं था। वे बोले, 'रोगग्रस्त है।' ब्रह्मदत चक्रवर्ती की आँखे उसके मित्र ने ही शत्रुतावश फोड़ दी। सुभम चक्रवर्ती छ: खण्डों को जीतकर भी बारह खण्डों को जीतने चला, और यश पाने के लिए। उसने चर्म-रत्न (नवे आणविक बेडे की तरह) जहाज छोड़ा। उसमें एक हजार देव, सेवक थे। एक-एक ने सोचा, चलो देवांगना से मिल आऊँ पता नहीं कितने वर्षों में छुटकारा होगा। सभी देव-सेवकों के ऐसे विचार होने से चर्मरत्न न संभला, डूब गया। सुभम चक्रवर्ती एवं सारी सेना भी डूब गई। तृष्णा तो बढ़ती जाती है, महादेव हो जावे तब भी। मनुष्य देह महात्मयः_ चक्रवर्ती और सुअर भोग भोगने में दोनो तुच्छ है। दोनों के शरीर हाड-मांस आदि के हैं और असाता से पराधीन हैं। चक्रवर्ती के जितने वैभव की बहुलता है उतनी उपाधि है। इसलिए चक्रवर्ती जीवन-पर्यन्त मोहाध रहा तो वह बिल्कुल बाजी हार जायेगा। जैन और दूसरे सभी मार्गों में प्रायः जो मनुष्य देह का महात्मय बताया
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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