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परम कृपालु देव श्रीमद् राजचन्द्र के उद्गार
अपनी आत्मा कथा 'मेरे सत्य के प्रयोग' में महात्मा गाँधी ने श्रीमद् राजचन्द को अपना आध्यात्मिक गुरु माना है । मात्र उन्नीस वर्ष की अवस्था में श्रीमद् ने शतावधानी के प्रयोग कर दिखाये थे जिसमें सोलह भाषाओं के सौ पद्य उल्टे सीधे, जुदा जुदा क्रम से, स्मृति में रख पुनः सुना दिये थे । 'जातिस्मरण-ज्ञान' तथा आध्यात्मिक ज्ञान एवं अनुभव से सिद्धहस्त थे । कर्मनिर्जरा की ऐसी - अवस्था में पहुँच चुके थे जो भावावस्था केवल्य के समीप थी । मात्र चौंतीस वर्ष में उनका देहावसान हुआ ।
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निष्पृहता
वे व्यवसाय से हीरों के व्यापारी थे फिर भी उनका मन, आत्मा में ही रमण करता था । आत्मा ऐश्वर्य के आगे जगत का सोना, चांदी रत्न सब तुच्छ मानते थे। पौदगलिक बड़प्पन को उतनी ही दुर्गति का कारण मानते थे। इसलिए श्रीमद परम कृपालु देव ने कहा "ज्ञानी की शरण में बुद्धि रखकर खेद रहित भाव से निर्भयता से रहना ही तीर्थंकरों की शिक्षा है। किसी भी कारण से क्लेषित होना इस संसार में योग्य नहीं है। एक साधारण सुपारी जैसा माणक, जो प्रत्यक्ष दोष-रहित, पानीदार, धार - दार उत्तम रंग का हो तो जौहरी लोग ऐसा मानते हैं कि उसकी करोड़ों में कीमत आंकी जाये तो भी कम है। अतः आश्चर्य है अनादि दुर्लभ सत्संग जिसमें आत्मा स्थिर रहती है, उसमें लोगों का मन क्यों नहीं लगता? जबकि उपरोक्त प्रकार के माणक में तो