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________________ 121/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार उनका वर्णन यहाँ पुनरावृत्ति दोष से बचने हेतु किया जा रहा है। साथ ही सूत्र में सम्यग् दर्शन के दोषों का यानी सम्यग् दर्शन, सम्यक् रूप से न पालने को भी उल्लेखित किया गया है, जिन्हें उपरोक्त सभी प्रतिक्रमणों में सूत्र के द्वारा कहकर आलोचना ली जाती है यानी स्वयं की निन्दा, आलोचना, पापकर्मों से पीछे हटने के लिए की जाती है। लक्ष्य सम्यग्-दर्शन, ज्ञान एवं चरित्र होता "संका कंख, विगिच्छा, पसंस तह संथवो कुलिंगीसु। सम्मतस्यइयारे, पडिक्क में देसिअंसव्वं ।।" (6) - जिन वचन में शंका, धर्म के फल की आकांक्षा, साधु साध्वी के मलिन वस्त्रों पर घृणा, मिथ्यात्वियों की प्रशंसा, उनकी स्तवना, सम्यग् दर्शन के पाँच अतिचार हैं। इसी तरह भोजनादि हेतु पृथ्वीकाय जीवों के समारंभ से, प्राणियों को बांधने से, नाक, कानादि छेदन से, किसी का रहस्य खोलने से, कूड़े तोल, माप रखने, दस्तावेज लिखने व चोरी की वस्तु रखने, नकली वस्तु असली के दाम बेचने, परस्त्रीगमन या अप्रशस्त भाव से या अपरिग्रह व्रत में हेरफेर करने, अनर्थदण्ड के कार्य, व्यर्थ प्रलाप, स्वप्रसिद्धि, अनावश्यक वस्तु संग्रह, स्वाद की गुलामी, पाप कार्य में • साक्षी, सामयिक में समभाव नहीं, समय मर्यादा नहीं पालना, नींद लेना, दिग्व्रत का उचित पालन नहीं करना, शस्त्रादि व्यापार, चक्की, घाणी, यांत्रिक कर्म जिनमें जीवों की हानि हो, छेदन, अग्नि कर्म आदि तथा भूमि प्रमार्जन में प्रमाद, प्रौषधव्रत का उल्लंघन, इस लोक में, परलोक में सुख वैभव की आकांक्षा आदि विविध दोषों के लिए सूत्र में प्रायश्चित किया गया है। कुछ ऐसे दोहे हैं जिनमें स्वआलोचना का महत्व दर्शाया है, जैसे"कय पावो विमणुस्सो आलोइअ निंदिअ गुरुसगासे।"(40) जिस प्रकार भार उतारने से हल्का होता है, उसी प्रकार गुरुदेव के पास आलोयणा लेने से, आत्म साक्षी से, पाप की निंदा करने से, मनुष्य के पाप हल्के होते हैं।
SR No.002322
Book TitleJaino Ka Itihas Darshan Vyavahar Evam Vaignanik Adhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Jain, Santosh Jain, Tara Jain
PublisherRajasthani Granthagar
Publication Year2013
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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