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113/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
कभी वस्तु का मुख्य-पक्ष व्यक्त किया जाता है तब उसका अन्य पक्ष गौण रहता है। व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों मिलकर ही सत्य को उजागर करते हैं। प्रभु महावीर ने तो सत्य कथन पर भी कुछ सीमा बांधी है। जैसे सत्य स्व एवं परहितकारी होना आवश्यक है। तभी वह विश्वसनीय एवं पूजनीय होगा। सत् के विश्लेषण में स्वदृष्टि, पर-दृष्टि एवं अन्य अपेक्षाएँ रहती हैं, वह सप्तभंगी, स्यद्वाद है। जैसे सूर्य की किरण या प्रकाश कण रूप में रेखायुक्त है। लेकिन द्विधर्मी होने पर तरंग रूपनी है। इसी प्रकाश की किरणें द्विधर्मी यानी कण रूप में या झलती तंरग रूप में प्रवाहित होने से प्रकाश कण एक संदूक के बीच विभाजन अ और ब खण्ड होने व बीच में छेद होने पर, रक्षा अनुसंधान पूर्व वैज्ञानिक डॉ. एस. कोठारी अनुसार सप्त भंगी स्थिति बन जाती
पंदूक के झूलती तरंगा प्रकाश
आस्ति है - प्रकाश कणं 'अ' भाग में । नास्ति - नहीं (प्रकाश कण 'अ' भाग में नहीं)। आस्ति नास्ति -है, नहीं है, (प्रकाश कण है भी व नहीं भी)।
अवक्तव्यं- कह नहीं सकते। निश्चित नहीं कह सकते। आस्ति अवक्तव्यं है, नहीं कह सकते ।
अस्ति अव्यक्तव्यं- है, नहीं कह सकते। नास्ति अवक्तव्यं – है, नहीं है, नहीं कह सकते। आस्ति नास्ति अवक्तव्यं दोनों ही नहीं कह सकते।
रोगी की गंभीर स्थिति के उपचार स्वरूप स्वस्थ होने, न होने के बारे में, चिकित्सक उपरोक्त कथन कर सकता है।
जीवात्मा केवल ज्ञान प्राप्ति के पूर्व ऐसी कई अनिश्चित अवस्थाओं से गुजरती है। जैसे एक अंधे व्यक्ति के लिए हाथी के अलग-अलग अवयव देखकर उनका वर्णन करना।