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अनेकान्त एवं स्याद्वाद/112
उपरोक्त तीनों गुणों से जो युक्त है वह सत्य है। जीव तत्वों में आत्मा सदा विद्यमान है। वर्तमान स्थिति का क्षय व्यय है। प्रतिपल जागरूक प्रयास कर , स्वद्रव्य आत्मा की प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है - ध्रुव है , एवं केवल तन, मन वचन मात्र को जीव या शरीर मानना - सतत् व्यय है। इसी प्रकार पदार्थ की दृष्टि से बीज का अंकुरण होना उत्पाद है। उसका पौधा एवं वृक्ष रूप में बढ़ना बीज का व्यय है एवं पुनः बीजों से उत्पति ध्रोव्य है। इस प्रकार की विविध अपेक्षाएं हैं, दृष्टिकोण हैं। पदार्थ तथा जीव की अनेक विशेषताएं हैं। जैसे जीव के लिए कहा गया है।
समता, रमता, उरधता, ग्याकता, सुखभास।
वेदकता, चेतन्यता ये सब जीव विलास।। इसके विपरीत अजीव के लक्षण हैं -
तनसा, मनसा, वचनता जड़ता, जड़ सम्मेल। लघुता गुरुता, गमनता ये अजीव के खेल।।
-(समयसार- बनारसीदास) समता, रमता उरधता, अनेकांत धर्मी जीव (आत्मा) में सत्य एवं अंहिसा सम्मिलित है। अतः महात्मा कबीर ने कहा है
कबीरा सोही सत् है जो जाणे पर पीर।
जो पर पीर न जाणिये ते काफिर बेपीर।। जो अन्य की पीड़ा नहीं जानता उसमें आत्मभाव या ईश्वर नहीं है। . सारांश में यह कहा जा सकता है कि जीव एवं पुद्गल.. अनेकधर्मी हैं और उन्हें एक साथ नहीं कहा जा सकता। वरन एक एक अपेक्षा, विशेषता, सत्यांश के रूप में ही प्रकट किया जा सकता है। जो स्याद्वाद का मर्म है। अतः कहा गया है अर्पितान अर्पिता सिद्धे ।
-(तत्वार्थ सूत्र 5:31)