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111/जैनों का संक्षिप्त इतिहास, दर्शन, व्यवहार एवं वैज्ञानिक आधार
शंकाशील होकर दूसरों से घृणा करके, भेड़ चाल की तरह लोक मूढता से सत्य उजागर नहीं होता।
(5) अनायोग मिथ्यात्व-यह अज्ञान जन्य है। तत्वबोध पाया नहीं है, अतः अभिमानी बन, अपने को अन्य सब से बड़ा मानना; दूसरे के छोटे से दोष को बड़ा बताना, अपने बड़े दोषों को छुपाना, सत्य की पहिचान न होने पर अन्धानुकरण इसमें आता है। ये सब दोष सम्यग् दर्शन की अप्राप्ति के भी कारण बनते है। अतः प्रभु ने फरमाया था. अप्पाकता विकत्तये सुहाणय दुहाणय।
अप्पा मित्त मिमित्तं सुपट्ठिये दुपट्ठिये।। आत्मा ही हमारा शुभ कर्ता या अशुभ कर्ता है। सुख या दुःख पहुंचाने वाला है। जैसा इस जीवात्मा से हम भाव और क्रिया । करते हैं।
जो सहस्स सहस्साणं दुज्जय जिणे। एगो जिणेज्ज अप्पाणं तेससे परमोजय।। जो लाखों योद्धाओं को युद्ध में जीतता है उससे भी अधिक वीर जो आत्म विजय करता है।
नवि मुण्डियेण समणो औमकारेण न बमणों।
समाये समणोहाई बम्भचेरण बम्भणों।। मुण्डन मात्र या वेष मात्र से श्रमण नहीं होता न केवल ओम् ओम् उच्चारण से ब्राह्मण होता है। समभाव से श्रमण एवं ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है।
इस पृष्ठ भूमि में अनेकान्त एवं स्याद्वाद सरलता से समझ सकेंगे। सत्य क्या है, अस्तित्व किस प्रकार है? .."उत्पाद, व्यय, ध्रोव्य युक्तं सत् "| .
-(तत्वार्थ) 5:29