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भगवद्गीता 18/45
अपने-अपने उचित कर्म में लगे रहने से ही प्रत्येक मनुष्य को
सिद्धि प्राप्त होती है ।
135. कर्म से सिद्धि
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विंदती मानवः ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1985] भगवद्गीता 18/46
अपने श्रेष्ठ कर्मों के द्वारा उस परमात्मा की अर्चना करके ही प्राणी
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सिद्धि को पाता है ।
136. आत्मा किससे लभ्य ?
सत्येन लभ्य तपसा ह्येष आत्मा । सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1985 ] मुण्डकोपनिषद् 31/5
यह आत्मा नित्य सत्य से, तप से, सम्यग्ज्ञान से तथा ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त की जा सकती है ।
137. ज्ञान क्रिया, दो पंख
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उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां यथा खे पक्षिणो गतिः । तथैव ज्ञानकर्मभ्यां प्राप्यते ब्रह्मशाश्वतम् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1985 ] योगवाशिष्ठ - वैराग्य प्रकरण 17
जिसप्रकार पक्षी को आकाश में उड़ने के लिए दो परों की आवश्यकता होती है । दोनों पर बराबर होने से ही वह उड़ सकता है उसी प्रकार ज्ञान और कर्म दोनों के समन्वय से ही परमपद ( शाश्वत ब्रह्म) प्राप्त किया जा सकता है ।
138. ज्ञान की पराकाष्ठा
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सर्वं कर्माखिलं पार्थ ! ज्ञाने परिसमाप्यते ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 91