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385. सम्बोधन-विवक होलावायं सहीवायं, गोतावायं च नो वदे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2704
- सूत्रकृतांग - 12/27 साधु निष्ठुर या नीच सम्बोधन से किसी को पुकार कर होलावाद न करें । सखी, मित्र आदि कहकर सम्बोधित करके सखीवाद न करें तथा गोत्र का नाम लेकर (चाटुकारिता की दृष्टि से) किसी को पुकार कर गोत्रवाद न बोलें। 386. कुशील-असंसर्ग अकुसीले सया भिक्खू णोय संसग्गिय भए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2704]
- सूत्रकृताग - 12/28 श्रमण अकुशील बनकर रहे और कुशील जनों (दुराचारियों) के साथ संसर्ग न रखे। 387. हिए तराजू तोल
जं वदित्ताऽणुतप्पती । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2704/
- सूत्रकृतांग - 1406 बोलने के बाद पछताना पड़े, ऐसी बात भी मत कहो । 388. कष्ट-सहिष्णु मुनि चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2704]
- सूत्रकृतांग - 12/30 साधु-चर्या में अप्रमत्तशील होता हुआ मुनि उसके (चारित्र) मार्ग में आनेवाले उपसर्गों को धैर्य के साथ सहन करता रहे । 389. छल-कपट-त्याग
मातिट्ठाणं विवज्जेजा।
अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 154
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