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________________ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2202] - ज्ञानसार - 310 जहाँ ब्रह्मचर्य हो, जिनपूजा हो, कषायों का क्षय होता हो और अनुबन्ध सहित जिनाज्ञा प्रवर्तित हो, ऐसा तप शुद्ध माना जाता है। 197. बाह्याभ्यन्तर तपस्वी मुनि मूलोत्तरगुणश्रेणि-प्राज्यसाम्राज्य सिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं चेत्थं तपः कुर्यान्महामुनिः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 'पृ. 2202] - ज्ञानसार - 31/8 मूलगुण और उत्तरगुण की श्रेणिस्वल्प विशाल साम्राज्य की सिद्धि के लिए महामुनीश्वर (श्रेष्ठमुनि) बाह्य और अन्तरंग तप करते हैं । 198. तप कैसा हो ? तदेव हि तपः कार्यं दुर्थ्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते नेन्द्रियाणि वा ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2202] - ज्ञानसार - 310 वैसा ही तप करना चाहिए जिससे कि मन में दुर्ध्यान न हो, योगों की हानि न हो और इन्द्रियाँ क्षीण न हो । 199. उलटी चाल संतजनों की आनुस्रोतसिकी वृत्ति-र्बालानां सुखशीलता । प्रातिस्रोतसिकी वृत्ति ज्ञानिनां परमं तपः ।। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2202] - ज्ञानसार 310 लोकप्रवाह का अनुसरण करने की वृत्ति, अज्ञानियों की सुखशीलता है, जबकि ज्ञानी पुरुषों की लोक-प्रवाह के विरुद्ध चलने की वृत्ति परम तप अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 107
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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