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________________ जो असत्य की प्रल्पणा करते हैं, वे संसार सागर को पार नहीं कर सकते। 181. नास्तिक-धारणा नत्थि पुण्णे व पावे वा णत्थि लोए इतो परे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होति देहिणो ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2172] - सूत्रकृतांग - IMAn2 न पुण्य है, न पाप है और न इस दृश्यमान् लोक के अतिरिक्त कोई संसार है । शरीर का नाश होते ही जीव का नाश हो जाता है। 182. अन्यत्व . अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2173] - सूत्रकृतांग 243 .. आत्मा और है शरीर और है । 183. अपेक्षा दृष्टि से नारी बाह्ययद्दष्टेः सुधासार घटिता भाति सुन्दरी । तत्त्वदृष्टेस्तु साक्षात् सा विण्मूत्रपिठरोदरी ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2182] - ज्ञानसार 19/4 बाह्यदृष्टियुक्त व्यक्ति को नारी अमृत के सार से बनी लगती है, जबकि तत्त्वदृष्टि को वह स्त्री मल-मूत्र की हंडिया जैसी उदरवाली प्रतीत होती है। 184. बाह्यान्तर दृष्टि में: देह लावण्यलहरीपुण्यं वपुः पश्यति बाह्यदृक् । तत्त्वदृष्टिः श्वकाकानां भक्ष्यं कृमीकुलाकुलम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2182 ] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 103
SR No.002319
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages262
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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