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172 सहज सेवा
जह भमर महुयरिगणा, निवतंती कुसुमियम्मि चूयवणे । इय होइ निवइ अव्वं, गेल को कइवय जढेणं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 877 ] निशीथ भाष्य 2971
जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देखकर भौर उस पर मंडराने लग जाते हैं उसी प्रकार किसी साथी को दुःखी देखकर उसकी सेवा के लिए अन्य साथियों को सहज भाव से उमड़ पड़ना चाहिए ।
173. रोगी परिचर्या
कुज्जा भिक्खू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 894]
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एवं [भाग 5 पृ. 547] सूत्रकृतांग 1/3/3/13
भिक्षु प्रसन्न व शान्त भाव से अपने रुग्ण साथी की परिचर्या करें ।
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174. धर्म - बीज
दुःखितेषु दयाऽत्यन्तमद्वेषो गुणवत्सु च । औचित्यासेवनं चैव, सर्वत्रैवाविशेषतः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 899] एवं [भाग 4 पृ. 2731] योगदृष्टि समुच्चय 32 एवं धर्मबिन्दु 2/7146
दुःखी प्राणियों के प्रति अत्यन्त दयाभाव, गुणीजनों के प्रति अद्वेष तथा सर्वत्र जहाँ जैसा उचित हो, बिना किसी भेद-भाव के व्यवहार करना, सेवा करना; धर्म के बीज हैं।
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175. प्रशंसनीय हैं सत्पुरूष
वपनं धर्मबीजस्य, सत्प्रशंसादि तद्गतम् । तच्चिन्ताद्यङ्कुरादि स्यात्, फलसिद्धिस्तु निर्वृत्तिः ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड- 3 • 98